सोमवार, 23 नवंबर 2009

POEMS

कालपृष्ठ पर अंकित [ खंड - 1]
सामाजिक यथार्थ और मानवीय सरोकारों की कविताएँ
[ डा. महेंद्रभटनागर]
(राग-संवेदन / 17)
रचना-काल: सन् 2003-04
1 श्रेयस
2 संवेदना
3 दो-ध्रुव
4 विपत्तिग्रस्त
5 विजयोत्सव
6 हैरानी
7 समता-स्वप्न
8 अपहर्ता
9 दृष्टि
10 परिवर्तन
11 युगान्तर
12 सुखद
13 बदलो
14 बचाव
15 पहल
16 अद्भुत
17 स्वप्न
(अनुभूत-क्षण / 16)
रचना-काल: सन् 1968-2000
18 संघर्ष
19 अनुभव-सिद्ध
20 सावधान
21 अदम्य
22 सार्थकता
23 प्रतिक्रिया
24 शुभकामनाएँ
25 यथार्थ-आदर्श
26 कारगिल-प्रयाण पर
27 हमारा गौरव
28 निष्फल
29 दीप्र
30 संकल्पित
31 स्वागत : 21वीं शती का
32 अभिनन्दित क्षण
33 विजयोल्लास
(आहत युग / 24)
रचना-काल: सन् 1987-97
34 संग्राम ; और
35 अमानुषिक
36 फ़तहनामा
37 त्रासदी
38 होगा कोई
39 हॉकर से
40 आत्मघात
41 लोग
42 आपात्काल
43 जागते रहना
44 ज़रूरी
45 इतिहास का एक पृष्ठ
46 वसुधैवकुटुम्बकम्
47 भ्रष्टाचार
48 अंत
49 रक्षा
50 तमाशा
51 वोटों की दुष्टनीति
52 सार्थकता
53 अलम्
54 सम्भव — 1
55 सम्भव — 2
56 विपत्
57 स्वतंत्र
(जीने के लिए / 12)
रचना-काल: सन् 1977-86
58 आतंक के घेरे में
59 धर्मयज्ञ
60 आरज्रू
61 सन् 1986 ई. में
62 अग्नि-परीक्षा
63 नये इंसानों से
64 दूसरा मन्वन्तर
65 इतिहास-सृष्टाओ!
66 दरिद्रनारायण
67 माहौल
68 विजय-विश्वास
69 मंत्र
(जूझते हुए / 21)
रचना-काल: सन् 1972-76
70 प्रतिरोध
71 पतन
72 विचित्र
73 त्रासदी
74 कुफ्र
75 आह्नान
76 विश्वस्त
77 अनाहत
78 जनवादी
79 एकजुट
80 संक्रमण
81 मज़दूरों का गीत
82 श्रमजित्
83 वर्षान्त पर
84 विसंगति
85 प्रजातंत्र
86 लालसा
87 सर्वहारा का वक्तव्य
88 अभूतपूर्व
89 आश्वास
90 मुक्त-कंठ
(संकल्प / 15)
रचना-काल: सन् 1967-71
91 सहभाव
92 अन्तर्ध्वन्सक
93 अब नहीं
94 मेरा देश
95 नहीं तो
96 हमारे इर्द-गिर्द
97 एक नगर और रात की चीखें
98 अंधकाल
99 आओ जलाएँ
100 समता का गान
101 होली
102 विश्व-श्री
103 जनतंत्र-आस्था
104 गणतंत्र-स्मारक
105 प्रण
(संवर्त / 9)
रचना-काल: सन् 1962-66
106 वर्तमान
107 श्रमजित्
108 संकल्प
109 आश्वस्त
110 विचित्र
111 परिणति
112 प्रतिबद्ध
113 योगदान
114 नवोन्मेष
(संतरण / 13)
रचना-काल: सन् 1956-62
115 दीप जलाओ
116 दीप-माला
117 अभिषेक
118 दीप धरो
119 अंधकार
120 लक्ष्य
121 आलोक
122 शुभकामनाएँ
123 दीप जलता है
124 नया भारत
125 एशिया
126 माओ और चाऊ के नाम
127 रंग बदलेगा गगन
 
.
(1) श्रेयस्
.
सृष्टि में वरेण्य
एक-मात्र
स्नेह-प्यार भावना!
मनुष्य की
मनुष्य-लोक मध्य,
सर्व जन-समष्टि मध्य
राग-प्रीति भावना!
.
समस्त जीव-जन्तु मध्य
अशेष हो
मनुष्य की दयालुता!
यही
महान श्रेष्ठतम उपासना!
.
विश्व में
हरेक व्यक्ति
रात-दिन / सतत
यही करे
पवित्र प्रकर्ष साधना!
.
व्यक्ति-व्यक्ति में जगे
यही
सरल-तरल अबोध निष्कपट
एकनिष्ठ चाहना!
.
 
(2) संवेदना
.
काश, आँसुओं से मुँह धोया होता,
बीज प्रेम का मन में बोया होता,
दुर्भाग्यग्रस्त मानवता के हित में
अपना सुख, अपना धन खोया होता!
.
 
(3) दो ध्रुव
.
स्पष्ट विभाजित है
जन-समुदाय —
समर्थ / असहाय।
.
हैं एक ओर —
भ्रष्ट राजनीतिक दल
उनके अनुयायी खल,
सुख-सुविधा-साधन-सम्पन्न
प्रसन्न।
धन-स्वर्ण से लबालब
आरामतलब / साहब और मुसाहब!
बँगले हैं / चकले हैं,
तलघर हैं / बंकर हैं,
भोग रहे हैं
जीवन की तरह-तरह की नेमत,
हैरत है, हैरत!
.
दूसरी —
जन हैं
भूखे-प्यासे दुर्बल, अभावग्रस्त ... त्रस्त,
अनपढ़,
दलित असंगठित,
खेतों - गाँवों / बाज़ारों - नगरों में
श्रमरत,
शोषित / वंचित / शंकित!
.
 
(4) विपत्ति-ग्रस्त
.
बारिश
थमने का नाम नहीं लेती,
जल में डूबे
गाँवों-क़स्बों को
थोड़ा भी
आराम नहीं देती!
सचमुच,
इस बरस तो क़हर ही
टूट पड़ा है,
देवा, भौचक खामोश
खड़ा है!
.
ढह गया घरौंधा
छप्पर-टप्पर,
बस, असबाब पड़ा है
औंधा!
.
आटा-दाल गया सब बह,
देवा, भूखा रह!
.
इंधन गीला
नहीं जलेगा चूल्हा,
तैर रहा है चैका
रहा-सहा!
.
घन-घन करते
नभ में वायुयान
मँडराते
गिद्धों जैसे!
शायद,
नेता / मंत्री आये
करने चेहलक़दमी,
उत्तर-दक्षिण
पूरब-पश्चिम
छायी
ग़मी-ग़मी!
अफ़सोस
कि बारिश नहीं थमी!
.
 
(5) विजयोत्सव
.
एरोड्रोम पर
विशेष वायुयान में
पार्टी का
लड़ैता नेता आया है,
.
‘शताब्दी’ से
स्टेशन पर
कांग्रेस का
चहेता नेता आया है,
.
‘ए-सी एम्बेसेडर’ से
सड़क-सड़क,
दल का
जेता नेता आया है,
.
भरने जयकारा,
पुरज़ोर बजाने
सिंगा, डंका, डिंडिम,
पहुँचा
हुर्रा-हुर्रा करता
सैकड़ों का हुजूम!
.
पालतू-फालतू बकरियों का,
शॉल लपेटे सीधी मूर्खा भेड़ों का,
संडमुसंड जंगली वराहों का,
बुज़दिल भयभीत सियारों का!
.
में-में करता
गुर्रा-गुर्रा हुंकृति करता
करता हुआँ-हुआँ!
.
चिल्लाता —
लूट-लूट,
प्रतिपक्षी को ....
शूट-शूट!
जय का जश्न मनाता
‘गब्बर’ नेता का!
.
 
(6) हैरानी
.
कितना ख़ुदग़रज़
हो गया इंसान!
बड़ा ख़ुश है
पाकर तनिक-सा लाभ —
बेच कर ईमान!
.
चंद सिक्कों के लिए
कर आया
शैतान को मतदान,
नहीं मालूम
‘ख़ुददार’ का मतलब
गट-गट पी रहा अपमान!
.
रिझाने मंत्रियों को
उनके सामने
कठपुतली बना निष्प्राण,
अजनबी-सा दीखता —
आदमी की
खो चुका पहचान!
.
 
(7) समता-स्वप्न
.
विश्व का इतिहास
साक्षी है —
.
अभावों की
धधकती आग में
जीवन
हवन जिनने किया,
अन्याय से लड़ते
व्यवस्था को बदलते
पीढ़ियों
यौवन
दहन जिनने किया,
.
वे ही
छले जाते रहे
प्रत्येक युग में,
क्रूर शोषण-चक्र में
अविरत
दले जाते रहे
प्रत्येक युग में!
.
विषमता
और ...
बढ़ती गयी,
बढ़ता गया
विस्तार अन्तर का!
हुआ धनवान
और साधनभूत,
निर्धन -
और निर्धन,
अर्थ गौरव हीन,
हतप्रभ दीन!
.
लेकिन;
विश्व का इतिहास
साक्षी है —
.
परस्पर
साम्यवाही भावना इंसान की
निष्क्रिय नहीं होगी,
न मानेगी पराभव!
.
लक्ष्य तक पहुँचे बिना
होगी नहीं विचलित,
न भटकेगा / हटेगा
एक क्षण
अवरुद्व हो लाचार
समता-राह से मानव!
.
 
(8) अपहर्ता
.
धूर्त —
सरल दुर्बल को
ठगने
धोखा देने
बैठे हैं तैयार!
.
धूर्त —
लगाये घात,
छिपे
इर्द-गिर्द
करने गहरे वार!
.
धूर्त —
फ़रेबी कपटी
चैकन्ने
करने छीना-झपटी,
लूट-मार
हाथ-सफ़ाई
चतुराई
या
सीधे मुष्टि-प्रहार!
.
धूर्त —
हड़पने धन-दौलत
पुरखों की वैध विरासत
हथियाने माल-टाल
कर दूषित बुद्वि-प्रयोग!
.
धृष्ट,
दुःसाहसी,
निडर!
.
बना रहे
छद्म लेख-प्रलेख!
.
चमत्कार!
विचित्र चमत्कार!
.
 
(9) दृष्टि
.
जीवन के कठिन संघर्ष में
हारो हुओ!
हर क़दम
दुर्भाग्य के मारो हुओ!
असहाय बन
रोओ नहीं,
गहरा अँधेरा है,
चेतना खोओ नहीं!
.
पराजय को
विजय की सूचिका समझो,
अँधेरे को
सूरज के उदय की भूमिका समझो!
.
विश्वास का यह बाँध
फूटे नहीं!
नये युग का सपन यह
टूटे नहीं!
भावना की डोर यह
छूटे नहीं!
.
 
(10) परिवर्तन
.
मौसम
कितना बदल गया!
सब ओर कि दिखता
नया-नया!
.
सपना —
जो देखा था
साकार हुआ,
अपने जीवन पर
अपनी क़िस्मत पर
अपना अधिकार हुआ!
.
समता का
बोया था जो बीज-मंत्र
पनपा, छतनार हुआ!
सामाजिक-आर्थिक
नयी व्यवस्था का आधार बना!
.
शोषित-पीड़ित जन-जन जागा,
नवयुग का छविकार बना!
साम्य-भाव के नारों से
नभ-मंडल दहल गया!
मौसम
कितना बदल गया!
.
 
(11) युगान्तर
.
अब तो
धरती अपनी,
अपना आकाश है!
.
सूर्य उगा
लो
फैला सर्वत्र
प्रकाश है!
.
स्वधीन रहेंगे
सदा-सदा
पूरा विश्वास है!
.
मानव-विकास का चक्र
न पीछे मुड़ता
साक्षी इतिहास है!
.
यह
प्रयोग-सिद्ध
तत्व-ज्ञान
हमारे पास है!
.
 
(12) सुखद
.
सहधर्मी / सहकर्मी
खोज निकाले हैं
दूर - दूर से
आस - पास से
और जुड़ गया है
अंग - अंग
सहज
किन्तु / रहस्यपूर्ण ढंग से
अटूट तारों से,
चारों छोरों से
पक्के डोरों से!
.
अब कहाँ अकेला हूँ ?
कितना विस्तृत हो गया अचानक
परिवार आज मेरा यह!
जाते - जाते
कैसे बरस पड़ा झर - झर
विशुद्ध प्यार घनेरा यह!
नहलाता आत्मा को
गहरे - गहरे!
लहराता मन का
रिक्त सरोवर
ओर - छोर
भरे - भरे!
.
 
(13) बदलो!
.
सड़ती लाशों की
दुर्गन्ध लिए
छूने
गाँवों-नगरों के
ओर-छोर
जो हवा चली —
उसका रुख़ बदलो!
.
ज़हरीली गैसों से
अलकोहल से
लदी-लदी
गाँवों-नगरों के
नभ-मंडल पर
जो हवा चली
उससे सँभलो!
उसका रुख़ बदलो!
.
 
(14) बचाव
.
कैसी चली हवा!
.
हर कोई
केवल
हित अपना
सोचे,
औरों का हिस्सा
हड़पे,
कोई चाहे कितना
तड़पे!
घर भरने अपना
औरों की
बोटी-बोटी काटे
नोचे!
.
इस
संक्रामक सामाजिक
बीमारी की
क्या कोई नहीं दवा?
कैसी चली हवा!
.
 
(15) पहल
.
घबराए
डरे-सताए
मोहल्लों में / नगरों में / देशों में
यदि -
सब्र और सुकून की
बहती
सौम्य-धारा चाहिए,
आदमी-आदमी के बीच पनपता
यदि -
प्रेम-बंध गहरा भाईचारा चाहिए,
.
तो —
विवेकशून्य अंध-विश्वासों की
कन्दराओं में
अटके-भटके
आदमी को
इंसान नया बनना होगा।
युगानुरूप
नया समाज-शास्त्र
विरचना होगा!
तमाम खोखले
अप्रासंगिक
मज़हबी उसूलों को,
आडम्बरों को
त्याग कर
वैज्ञानिक विचार-भूमि पर
नयी उन्नत मानव-संस्कृति को
गढ़ना होगा।
अभिनव आलोक में
पूर्ण निष्ठा से
नयी दिशा में
बढ़ना होगा!
.
इंसानी रिश्तों को
सर्वोच्च मान कर
सहज स्वाभाविक रूप में
ढलना होगा,
स्थायी शान्ति-राह पर
आश्वस्त भाव से
अविराम अथक
चलना होगा!
.
कल्पित दिव्य शक्ति के स्थान पर
‘मनुजता अमर सत्य’
कहना होगा!
सम्पूर्ण विश्व को
परिवार एक
जान कर, मान कर
परस्पर मेल-मिलाप से
रहना होगा!
.
वर्तमान की चुनौतियों से
जूझते हुए
जीवन वास्तव को
चुनना होगा!
हर मनुष्य की
राग-भावना, विचारणा को
गुनना-सुनना होगा!
.
 
(16) अद्भुत
.
आदमी —
अपने से पृथक धर्म वाले
आदमी को
प्रेम-भाव से — लगाव से
क्यों नहीं देखता?
उसे ग़ैर मानता है,
अक्सर उससे वैर ठानता है!
अवसर मिलते ही
अरे, ज़रा भी नहीं झिझकता
देने कष्ट,
चाहता है देखना उसे
जड-मूल-नष्ट!
देख कर उसे
तनाव में
आ जाता है,
सर्वत्र
दुर्भाव प्रभाव
घना छा जाता है!
.
ऐसा क्यों होता है?
क्यों होता है ऐसा?
.
कैसा है यह आदमी?
गज़ब का
आदमी अरे, कैसा है यह?
ख़ूब अजीबोगरीब मज़हब का
कैसा है यह?
सचमुच,
डरावना बीभत्स काल जैसा!
.
जो - अपने से पृथक धर्म वाले को
मानता-समझता
केवल ऐसा-वैसा!
.
(17) स्वप्न
.
पागल सिरफिरे
किसी भटनागर ने
माननीय प्रधान-मंत्री .. की
हत्या कर दी,
भून दिया गोली से!!
.
ख़बर फैलते ही
लोगों ने घेर लिया मुझको -
‘भटनागर है,
मारो ... मारो ... साले को!
हत्यारा है ... हत्यारा है!’
.
मैंने उन्हें बहुत समझाया
चीख-चीख कर समझाया -
भाई, मैं वैसा ‘भटनागर’ नहीं!
अरे, यह तो फ़कत नाम है मेरा,
उपनाम (सरनेम) नहीं!
.
मैं
‘महेंद्रभटनागर हूँ,
या ‘महेंद्र’ हूँ
भटनागर-वटनागर नहीं,
भई, कदापि नहीं!
ज़रा, सोचो-समझो।
.
लेकिन भीड़ सोचती कब है?
तर्क सचाई सुनती कब है?
सब टूट पड़े मुझ पर
और राख कर दिया मेरा घर!!
.
इतिहास गवाही दे —
किन-किन ने / कब-कब / कहाँ-कहाँ
झेली यह विभीषिका,
यह ज़ुल्म सहा?
कब-कब / कहाँ-कहाँ
दरिन्दगी की ऐसी रौ में
मानव समाज
हो पथ-भ्रष्ट बहा?
.
वंश हमारा
धर्म हमारा
जोड़ा जाता है क्यों
नामों से, उपनामों से?
कोई सहज बता दे —
ईसाई हूँ या मुस्लिम
या फिर हिन्दू हूँ
(कार्यस्थ एक,
शूद्र कहीं का!)
कहा करे कि
‘नाम है मेरा - महेंद्रभटनागर,
जिसमें न छिपा है वंश, न धर्म!’
(न और कोई मर्म!)
.
अतः कहना सही नहीं -
‘क्या धरा है नाम में!’
अथवा
‘जात न पूछो साधु की!’
हे कबीर!
क्या कोई मानेगा बात तुम्हारी?
आख़िर,
कब मानेगा बात तुम्हारी?
.
‘शिक्षित’ समाज में,
‘सभ्य सुसंस्कृत’ समाज में
आदमी - सुरक्षित है कितना?
आदमी - अरक्षित है कितना?
हे सर्वज्ञ इलाही,
दे, सत्य गवाही!
.
 
(18) संघर्ष
.
घुटन, बेहद घुटन है !
होंठ.... / हाथ.... / पैर
निष्क्रिय बद्ध
जन - जन क्षुब्ध.... / क्रुद्ध !
.
प्राण - हर
आतंक - ही - आतंक
है परिव्याप्त
दिशाओं में / हवाओं में !
.
इस असह वातावरण को
बदलना
ज़रूरी है !
.
इंसानियत को
बचाने के लिए
हर आदमी का अब सँभलना
ज़रूरी है !
.
जलन, बेहद जलन है,
तपन, बेहद तपन है !
.
हर क्षितिज
गहरे धुएँ से है घिरा
आग.... शोले उगलती आग,
लहराती
आकाश छूतीं अग्नि लपटें !
इनको बुझाना
ज़रूरी है !
.
 
(19) अनुभव-सिद्ध
.
तय है कि
काली रात गुज़रेगी,
भयावह रात गुज़रेगी !
असफल रहेगा
हर घात का आघात,
पराजित रात गुज़रेगी !
,
यक़ीनन हम
मुक्त होंगे
त्रासदायी स्याह घेरे से,
रू-ब-रू होंगे
स्वर्णिम सबेरे से,
अरुणिम सबेरे से !
.
तय है —
अँधेरे पर
उजाले की विजय
तय है !
.
पक्षी चहचहाएंगे,
मानव
प्रभाती गान गाएंगे !
.
उतरेंगी
गगन से सूर्य-किरणें
नृत्य की लय पर,
धवल मुसकान भर - भर !
.
तय है कि
संघातक कठिन दुःसह अँधेरी
रात गुज़रेगी !
.
कुचक्रों से घिरा आकाश
बिफरेगा,
आहत ज़िन्दगी इंसान की
सँवरेगी !
.
 
(20) सावधान
.
अँधेरा है, अँधेरा है,
बेहद अँधेरा है !
घुप अँधेरे ने
सारी सृष्टि को
अपने जाल में / जंजाल में
धर दबोचा है,
घेरा है !
.
नहीं; लेकिन
तनिक भयभीत होना है,
हार कर मन में
पल एक निष्क्रिय बन
न सोना है !
तय है —
कुछ क्षणों में
रोशनी की जीत होना है !
.
आओ
रोशनी के गीत गाएँ !
सघन काली अमावस है
पर्व दीपों का मनाएँ !
.
तम घटेगा
तम छँटेगा
तम हटेगा !
.
 
(21) अदम्य
.
दूर-दूर तक
छाया सघन कुहर —
कुहरे को भेद
डगर पर
बढ़ते हैं हम !
.
चट्टानों ने जब-जब
पथ अवरुद्ध किये —
चट्टानों को तोड़
नयी राहें गढ़ते हैं हम !
.
ठंडी तेज़
हवाओं के
वर्तुल झोंके आते हैं —
तीव्र चक्रवातों के सम्मुख
सीना ताने
पग-पग
अड़ते हैं हम !
.
सागर-तट पर
टकराता
भीषण ज्वारों का पर्वत —
उमड़ी लहरों पर चढ़
पूरी ताक़त से
लड़ते हैं हम !
.
दरियाओं की बाढ़ें
तोड़ किनारे बहती हैं —
जल भँवरों / आवेगों को
थाम;
सुरक्षा-यान चलाते हैं हम !
.
काली अंधी रात क़यामत की
धरती पर
घिरती है जब-जब —
आकाशों को जगमग करते
आशाओं के,
विश्वासों के,
सूर्य उगाते हैं हम !
मणि-दीप जलाते हैं हम !
.
ज्वालामुखियों ने जब-जब
उगली आग भयावह —
फैले लावे पर
घर अपना बेख़ौफ़
बनाते हैं हम !
.
भूकम्पों ने जब-जब
नगरों गाँवों को
नष्ट किया —
पत्थर के ढेरों पर
बस्तियाँ नयी
हर बार
बसाते हैं हम !
.
परमाणु-बमों / उद्जन-शस्त्रों की
मारों से
आहत भू-भागों पर
देखो कैसे
जीवन का परचम
फहराते हैं हम !
चारों ओर
नयी अँकुराई हरियाली
लहराते हैं हम !
.
कैसे तोड़ोगे इनके सिर ?
कैसे फोड़ोगे इनके सिर ?
.
दुर्दम हैं,
इनमें अद्भुत ख़म है !
.
काल-पटल पर अंकित है —
‘जीवन-अपराजित है !’
.
(22) सार्थकता
.
आओ
दीवारों के घेरों
परकोटों से
बाहर निकलें !
अपने सुख-चिन्तन से
ऊपर उठ कर
जग-क्रन्दन को
स्वर-सरगम में बदलें !
.
मुरझाये रोते चेहरों को
मुसकानें बाँटें,
उनके जीवन-पथ पर
छितराया कुहरा छाँटें !
रँग दें
घनघोर अँधेरे को
जगमग तीव्र उजालों से,
त्रासों और अभावों की
निर्मम मारों से,
हारों को, लाचारों को
ढक दें
लद-लद पीले-लाल गुलाबों की
जयमालों से !
.
घर-घर जाकर
सहमे-सहमे बच्चों को
प्यारी-प्यारी मोहक किलकारी दें,
कँकरीली और कँटीली परती पर
रंग-बिरंगी लहराती फुलवारी दें !
.
 
(23) प्रतिक्रिया
.
अणु-विस्फोट से
जाग्रत महात्मा
बुद्ध की बोली —
.
सुनिश्चित —
शान्ति हो,
सर्वत्र
सद्‍गति-सतग्रह की कान्ति हो !
सुरक्षित
सभ्यता, संस्कृति, मनुजता हो,
दुनिया से लुप्त दनुजता हो !
.
मानव-लोक
हिंसा-क्रूरता से मुक्त हो,
परस्पर प्रेम-ममता युक्त हो !
.
मना पाये नहीं
पशु-बल कहीं भी अब
मरण-त्योहार !
.
सार्थक तभी
यह ज्ञान का, विज्ञान का
उत्कृष्ट आविष्कार !
अनुपम और अद्भुत
मानवी उपहार !
.
 
(24) शुभकामनाएँ
.
रक्त-रंजित
इस शती का — वर्ष अंतिम
शक्ति-पूजा का
तपस्या-साधना का
वर्ष हो !
आगत शती में
जय मनुजता की दनुजता पर
सुनिश्चित हो,
प्रत्येक मुख पर
सिद्धि की उपलब्धि का
अंकित
सरल-सुन्दर हर्ष हो !
.
मानव-हृदय से
दुष्टता, पशुता, निठुरता दूर हो,
हिंसा-दर्प सारा चूर हो;
दृष्टि में ममता भरी भरपूर हो !
.
हर व्यक्ति दूषित वृत्तियाँ त्यागे,
परस्पर प्रेम हो
सद्भावना जागे !
हर व्यक्ति को हो प्राप्त
नव-बुद्धत्व
मानस-तीर्थ।
आत्मा का
सतत उत्कर्ष हो !
शुभ-कामनाओं से भरा
नव वर्ष हो !
.
 
(25) यथार्थ / आदर्श
.
जीवन और जगत जैसा हमको प्रत्यक्ष दिखा,
वैसा, हाँ केवल वैसा, हमने निष्पक्ष लिखा !
.
मानव-समता का स्वप्न, हमारा आदर्श सदा,
जिसको धारण कर, जन-जन जीवन-उत्कर्ष सधा !
.
प्रतिश्रुत हैं हम, शोषण-रहित समाज बनाएंगे,
प्रतिबद्ध कि हम जगती पर ही स्वर्ग बसाएंगे !
.
इतिहास बनाने की अभिनव दृष्टि हमारी है,
उत्कृष्ट समुन्नत नव जीवन-सृष्टि प्रसारी है !
.
 
(26) कारगिल-प्रयाण पर
.
सीमाओं की रक्षा करने वाले वीर जवानो !
दुश्मन के शिविरों पर चढ़ कर भारी प्रलय मचा दो,
मातृभूमि पर बर्बर हत्यारों की बिखरें लाशें
तोपों के गर्जन-तर्जन से दुश्मन को दहला दो !
.
 
(27) हमारा गौरव
.
भारत का चट्टानी सीना है
कार्गिल !
टकराएँ चाहे कितने ही
अणु-बम
इसका पाया लेकिन
कभी न सकता हिल !
.
छल और कपट से
लुक-छिप कर घुस आये
दुश्मन को धकियानेवाला
पर्वतराज कारगिल !
नहीं कभी यह हुआ; न होगा
गाफ़िल !
बर्बर धोखेबाज़ों की
लाशों का ढेर लगाने वाला
काल - कारगिल !
अब तो भैया
इसका नाम सिर्फ़
दुश्मन का दहलाता दिल !
.
सीमा का प्रहरी सैनिक है यह
कार - कारगिल !
भारत-माता का स्वस्तिक है यह
कार - कारगिल !
.
 
(28) निष्फल
.
प्रमाणित यह कि
जिसके पास
है अधिकार; है धन —
शक्तिशाली
वह।
.
शक्तिशाली ने
स्वार्थ-साधन में,
वासनाओं की अहर्निश पूर्ति में
दुर्बल-वर्ग को
लूटा - खसोटा,
जिस तरह चाहा —
समय भोगा !
.
हर जगह निर्मित
वैभव-द्वीप उसके,
फैला हुआ है
चक्रवर्ती राज्य उसका,
उसी का गूँजता सर्वत्र
जय-जयकार !
.
दुष्कर दीखता बनना
शोषण-मुक्त, समता-युक्त
अभिनव विश्व का आकार।
शक्तिशाली
क्यों नहीं बनता
महा मानव,
न्याय-धर्मी लोकप्रिय
अवतार !
.
 
(29) दीप्र
.
अवशेष स्वयं को कर
दहता जो
जीवन - भर !
.
दूर-दूर तक
राहों का
हरता अँधियारा,
अन्तर - ज्वाला से
घर - घर
भरता उजियारा:
.
उसके सर्वोत्तम सक्षम
प्रतिनिधि हम,
तम-हर ज्योतिर्गम !
.
 
(30) संकल्पित
.
प्रज्ज्वलित-प्रकाशित
दीप हैं हम !
सिर उठाये,
जगमगाती रोशनी के
दीप हैं हम !
वेगवाही अग्नि-लहरों से
लहकते चिन्ह-धर,
ध्रुव-दीप हैं हम !
.
शांत प्रतिश्रुत
दृढ़ प्रतिज्ञाबद्ध —
छायी घन-अँधेरी शक्ति का
पीड़न-भरा
साम्राज्य हरने के लिए,
सर्वत्र
नव आलोक-लहरों से
उफ़नता ज्वार
भरने के लिए !
.
हमारा दीप्त
द्युति-अस्तित्व
करता लोक को आश्वस्त,
जन-समुदाय की प्रत्येक आशंका
विनष्ट-निरस्त !
भर उठता
सहज हर्षानुभूति से
हर दबा भय-त्रास्त !
होता एक क्षण में
रुद्ध मार्ग प्रशस्त !
.
प्रतिबद्ध हैं हम —
व्यक्ति के मन में
उगी-उपजी
निराशा का, हताशा का
कठिन संहार करने के लिए !
हर हत हृदय में
प्राणप्रद उत्साह का
संचार करने के लिए !
.
 
(31) स्वागत : 21वीं शती का
.
आगामी सौ वर्षों में —
वि-ज्ञान सूर्य की
अभिनव किरणों से
आलोकित हो
मानव-मन !
.
अंधे विश्वासों से
अंधी आस्था से
ऊपर उठ कर,
मिथ्या जड़ आदिम
तथाकथित धर्मों की
कट्टरता से
हो कर मुक्त —
नयी मानवता का
सच्चा पूजक हो
जन-जन !
.
एक अभीप्सित
व्यापक विश्व-धर्म में
दीक्षित हो
पूर्ण लोक,
फेंके उतार
गतानुगत खोखले विचारों का
सड़ा-गला निर्मोक !
क्षयी विगलित
कुष्ठ-कोष आवरण कवच,
जिससे दीखे केवल
सच...सच !
.
आगामी सौ वर्षों में —
स्थापित हो साम्राज्य
दया ममता करुणा का,
फैले
अभिमंत्रित संस्कृत शीतल
जल वरुणा का —
.
बीभत्स घृणा-दर्शन
हिंसा से,
आहत मानव मन पर
तन पर !
.
वसुधा
आप्लावित हो
उन्नत भावोंµसद्भावों से,
आच्छादित हो
मर्यादित न्यायोचित प्रस्तावों से !
हो लुप्त जगत से
बर्बरता
क्रूर दनुजता
ध्वंसक वैर विकलता,
सब—
देव सहिष्णु बनें,
पालनकर्ता विष्णु बनें !
.
 
(32) अभिनन्दित - क्षण
.
शुभ-संकल्पों की
फहराती
कल्याण-पताका
सौभाग्य-पताका,
आयी पृथ्वी पर
नयी शती
इक्कीसवीं शती !
.
उड़ती
अति-सुन्दर
स्वर्ग-वधू-सम
श्वेताम्बर लहराती,
नवयुग-मंडप में
स्थापित करती
शान्ति-कलश सुख,
स्वस्ति मुख ।
आयी पृथ्वी पर
नयी शती
इक्कीसवीं शती !
.
मानव के
चिर-इच्छित सपनों को
धरती पर
करने साकार,
देने
उसकी सर्वोत्तम रचना को
दृढ़ आधार,
उतरी
जन-मानस पर
नयी शती
इक्कीसवीं शती !
.
स्वागत !
श्रम-रत
हम
करते हार्दिक स्वागत !
.
 
(33) विजयोल्लास
.
हमने चाहा —
जी लें
जब-तक आये
नयी शती !
.
हमने चाहा —
धड़कन
बंद न हो
जब-तक आये
हँसती-गाती
नयी शती !
.
पूरी होती
इस इच्छा पर
कौतूहल है,
मानव-आस्था में
सच;
कितना बल है !
अद्भुत बल है !
.
हमने चाहा —
जी लें
जब-तक आये
नयी शती !
आख़िर
आ ही गयी
थिरकती नयी शती ।
सचमुच
आ ही गयी
ठुमकती नयी शती !
.
मृत्यु पराजित
जीवन जीत गया !
सफल तपस्या,
पहनूंगा अब
सुविधा से परिधान नया !
.
 
(34) संग्राम; और
.
जिस स्वप्न को
साकार करने के लिए —
सम्पूर्ण पीढ़ी ने किया
संघर्ष
अनवरत संघर्ष,
सर्वस्व जीवन-त्याग;
वह
हुआ आगत !
.
कर गया अंकित
हर अधर पर हर्ष,
चमके शिखर-उत्कर्ष !
प्रोज्ज्वल हुई
हर व्यक्ति के अंतःकरण में
आग,
अभिनव स्फूर्ति भरती आग !
संज्ञा-शून्य आहत देश
नूतन चेतना से भर
हुआ जाग्रत,
सघन नैराश्य-तिमिराच्छन्न कलुषित वेश
बदला दिशाओं ने,
हुआ गतिमान जन-जन
स्पन्दन-युक्त कण-कण !
.
आततायी निर्दयी
साम्राज्यवादी शक्ति को
लाचार करने के लिएµ
नव-विश्वास से ज्योतित
उतारा था समय-पट पर
जिस स्वप्न का आकार
वह,
हाँ, वह हुआ साकार !
.
लेकिन तभी....
अप्रत्याशित-अचानक
तीव्रगामी / धड़धड़ाते / सर्वग्राही,
स्वार्थ-लिप्सा से भरे
भूकम्प ने
कर दिए खंडित —
श्रम-विनिर्मित
गगन-चुम्बी भवन,
युग-युग सताये आदमी के
शान्ति के, सुख के सपन !
.
इसलिए; फिर
दृढ़ संकल्प करना है,
वचन को पूर्ण करना है,
विकृत और धुँधले स्वप्न में
नव रंग भरना है,
कमर कस कर
फिर कठिन संघर्ष करना है !
.
 
(35) अमानुषिक
.
आज फिर
खंडित हुआ विश्वास,
आज फिर
धूमिल हुई
अभिनव ज़िन्दगी की आस !
.
ढह गये
साकार होती कल्पनाओं के महल !
बह गये
अतितीव्र अतिक्रामक
उफ़नते ज्वार में,
युग-युग सहेजे
भव्य-जीवन-धारणाओं के अचल !
.
आज छाये; फिर
प्रलय-घन,
सूर्य — संस्कृति-सभ्यता का
फिर ग्रहण-आहत हुआ,
षड्यंत्रों-घिरा
यह देश मेरा
आज फिर
मर्माहत हुआ !
.
फैली गंध नगर-नगर
विषैली प्राणहर बारूद की,
विस्फोटकों से
पट गयी धरती,
सुरक्षा-दुर्ग टूटे
और हर प्राचीर
क्षत-विक्षत हुई !
.
जन्मा जातिगत विद्वेष,
फैला धर्मगत विद्वेष,
भूँका प्रांत-भाषा द्वेष,
गँदला हो गया परिवेश !
सर्वत्र दानव वेश !
घुट रही साँसें
प्रदूषित वायु,
विष-घुला जल
छटपटाती आयु !
.
 
(36) फ़तहनामा
.
आतंक: सियापा !
छलनी / ख़ून-सनी
बेगुनाह लाशें,
खेतों-खलियानों में
छितरी लाशें,
सड़कों पर
बिखरी लाशें !
.
निरीह
माँ, पत्नी, बहनें, पुत्रियाँ,
पिता, बन्धु, मित्र, पड़ोसी —
रोके आवेग
थामे आवेश
नत मस्तक
मूक विवश !
.
जश्न मनाता
पूजा-घर में
सतगुरु-ईश्वर-भक्त
ख़ुदा-परस्त !
.
 
(37) त्रासदी
.
दहशत : सन्नाटा
दूर-दूर तक सन्नाटा !
.
सहमे-सहमे कुत्ते
सहमे-सहमे पक्षी
चुप हैं।
.
लगता है —
क्रूर दरिन्दों ने
निर्दोष मनुष्यों को फिर मारा है,
निर्ममता से मारा है !
रातों-रात
मौत के घाट उतारा है !
सन्नाटे को गहराता
गूँजा फिर मज़हब का नारा है !
ख़तरा,
बेहद ख़तरा है !
.
रात गुज़रते ही
घबराए कुत्ते रोएंगे,
भय-विह्नल पक्षी चीखेंगे !
.
हम
आहत युग की पीड़ा सह कर
इतिहासों का मलबा ढोएंगे !
.
 
(38) होगा कोई
.
एक आदमी / झुका-झुका / निराश
दर्द से कराहता हुआ
तबाह ज़िन्दगी लिए
गुज़र गया।
.
एक आदमी / झुका-झुका / हताश
चोट से लहूलुहान
चीखता हुआ / पनाह माँगता / अभी-अभी
गुज़र गया।
.
 
(39) हॉकर से
.
यह क्या
रोज़-रोज़
तरबतर ख़ून से
अख़बार फेंक जाते हो तुम
घर में मेरे ?
.
तमाम हादसों से रँगा हुआ
अंधाधुंध गोलियों के निशान
पृष्ठ-पृष्ठ पर स्पष्ट उभरते !
.
छूने में.....पढ़ने में इसको
लगता है डर,
लपटें लहराता
ज़हर उगलता
डसने आता है अख़बार !
.
यद्यपि
यही ख़बर सुन कर
सोता हूँ हर रात
कि कोई कहीं
अप्रिय घटना नहीं घटी,
तनाव है
किन्तु नियंत्रण में है सब !
.
 
(40) आत्मघात
.
हम ख़ुद
तोड़ रहे हैं अपने को !
ताज्जुब कि
नहीं करते महसूस दर्द !
इसलिए कि
मज़हब का आदिम बर्बर उन्माद
नशा बन कर
हावी है
दिल पर : सोच-समझ पर।
हम ख़ुद
हथगोले फोड़ रहे हैं अपने ही ऊपर !
पागलपन में
अपने ही घर में
बारूद बिछा कर सुलगा आग रहे हैं
अपने ही लोगों पर करने वार-प्रहार !
.
हम ख़ुद
छोड़ रहे हैं रूप आदमी का
और पहन आये हैं खालें जानवरों की
गुर्राते हैं
छीनने-झपटने जानें
अपने ही वंशधरों की !
.
 
(41) लोग
.
चल रहे हैं लोग
सिर्फ़ पीछे भीड़ के !
.
जाना कहाँ
नहीं मालूम,
हैं बेख़बर
निपट महरूम,
.
घूमते या इर्द —
गिर्द अपने नीड़ के !
.
छाया इधर —
उधर जो शोर,
आया कहीं
न आदमख़ोर ?
.
सरसराहट आज
जंगलों में चीड़ के !
.
 
(42) आपात्काल
.
तूफ़ान
अभी गुज़रा नहीं है !
बहुत कुछ टूट चुका है
टूट रहा है,
मनहूस रात
शेष है अभी !
.
जागते रहो
हर आहट के प्रति सजग
जागते रहो !
न जाने
कब.....कौन
दस्तक दे बैठे —
शरणागत।
.
ज़हर उगलता
फुफकारता
आहत साँप-सा तूफ़ान
आखि़र गुज़रेगा !
सब कुछ लीलती
घनी स्याह रात भी
हो जाएगी ओझल !
.
हर पल
अलस्सुबः का इंतज़ार
अस्तित्व के लिए !
.
 
(43) जागते रहना
.
जागते रहना, जगत में भोर होने तक !
.
छा रही चारों तरफ़ दहशत
रो रही इंसानियत आहत
वार सहना, संगठित जन-शोर होने तक !
.
मुक्त हो हर व्यक्ति कारा से
जूझना विपरीत धारा से
जन-विजय संग्राम के घनघोर होने तक !
.
मौत से लड़ना, नहीं थकना
अंत तक बढ़ना नहीं रुकना
हिंसकों के टूटने - कमज़ोर होने तक !
.
 
(44) ज़रूरी
.
इस स्थिति को बदलो
कि आदमी आदमी से डरे,
इन हालात को हटाओ
कि आदमी आदमी से नफ़रत करे !
.
हमारे बुज़ुर्ग
हमें नसीहत दें कि
बेटे, साँप से भयभीत न होओ
हर साँप ज़हरीला नहीं होता,
उसकी फूत्कार सुन
अपने को सहज बचा सकते हो तुम।
हिंस्र शेर से भी भयभीत न होओ
हर शेर आदमख़ोर नहीं होता,
उसकी दहाड़ सुन
अपने को सहज बचा सकते हो तुम !
पशुओं से, पक्षियों से
निश्छल प्रेम करो,
उन्हें अपने इर्द-गिर्द सिमटने दो
अपने तन से उन्हें लिपटने दो,
कोशिश करो कि
वे तुमसे न डरें
तुम्हें देख न भगें,
पंख फड़फड़ा कर उड़ान न भरें,
चाहे वह
चिड़िया हो, गिलहरी हो, नेवला हो !
.
तुम्हारे छू लेने भर से बीरबहूटी
स्व-रक्षा हेतु
जड़ बनने का अभिनय न करे !
तुम्हारी आहट सुन
खरगोश कुलाचें भर-भर न छलाँगे
सरपट न भागे !
.
लेकिन
दूर-दूर रहना
सजग-सतर्क
इस आदमज़ाद से !
जो —
न फुफकारता है, न दहाड़ता है,
अपने मतलब के लिए
सीधा डसता है,
छिप कर हमला करता है !
कभी-कभी यों ही
इसके-उसके परखचे उड़ा देता है !
फिर चाहे वह
आदमी हो, पशु हो, पक्षी हो,
फूल हो, पत्ती हो, तितली हो, जुगनू हो !
.
अपना, बस अपना
उल्लू सीधा करने
यह आदमी
बड़ा मीठा बोलता है,
सुनने वाले कानों से मधुरस घोलता है !
.
लेकिन
दबाए रखता है विषैला फन,
दरवाज़े पर सादर दस्तक देता है,
‘जयराम जी’ की करता है !
तुम्हारे गुण गाता है !
और फिर
सब कुछ तबाह कर
हर तरफ़ से तुम्हें तोड़ कर
तड़पने-कलपने छोड़ जाता है !
.
आदमी के सामने ढाल बन कर जाओ,
भूखे-नंगे रह लो
पर, उसकी चाल में न आओ !
ऐसा करोगे तो
सौ बरस जिओगे, हँसोगे, गाओगे !
.
इस स्थिति को बदलना है
कि आदमी आदमी को लूटे,
उसे लहूलुहान करे,
हर कमज़ोर से बलात्कार करे,
निर्द्वन्द्व नृशंस प्रहार करे,
अत्याचार करे !
और फिर
मंदिर, मसज़िद, गिरजाघर, गुरुद्वारा जाकर
भजन करे,
ईश्वर के सम्मुख नमन करे !
.
 
(45) इतिहास का एक पृष्ठ
.
सच है —
घिर गये हैं हम
चारों ओर से
हर क़दम पर
नर-भक्षियों के चक्रव्यूहों में,
भौंचक-से खड़े हैं
लाशों-हड्डियों के
ढूहों में !
.
सच है —
फँस गये हैं हम
चारों ओर से
हर क़दम पर
नर-भक्षियों के दूर तक
फैलाए-बिछाए जाल में,
छल-छद्म की
उनकी घिनौनी चाल में !
.
बारूदी सुरंगों से जकड़ कर
कर दिया निष्क्रिय
हमारे लौह-पैरों को
हमारी शक्तिशाली दृढ़ भुजाओं को !
भर दिया घातक विषैली गंध से
दुर्गन्ध से
चारों दिशाओं की हवाओं को !
.
सच है —
उनके क्रूर पंजों ने
है दबा रखा गला,
भींच डाले हैं
हर अन्याय को करते उजागर
दहकते रक्तिम अधर !
मस्तिष्क की नस-नस
विवश है फूट पड़ने को,
ठिठक कर रह गये हैं हम !
खंडित पराक्रम
अस्तित्व / सत्ता का अहम् !
.
सच है कि
आक्रामक-प्रहारक सबल हाथों की
जैसे छीन ली क्षमता त्वरा —
अब न हम ललकार पाते हैं
न चीख पाते हैं,
स्वर अवरुद्ध
मानवता-विजय-विश्वास का,
सूर्यास्त जैसे
गति-प्रगति की आस का !
अब न मेधा में हमारी
क्रांतिकारी धारणाओं-भावनाओं की
कड़कती तीव्र विद्युत कौंधती है,
चेतना जैसे
हो गयी है सुन्न जड़वत् !
.
चेष्टाहीन हैं / मजबूर हैं,
हैरान हैं,
भारी थकन से चूर हैं !
.
लेकिन
नहीं अब और
स्थिर रह सकेगा
आदमी का आदमी के प्रति
हिंसा-क्रूरता का दौर !
.
दृढ़ संकल्प करते हैं
कठिन संघर्ष करने के लिए,
इस स्थिति से उबरने के लिए !
.
 
(46) वसुधैवकुटुम्बकम्
.
जाति, वंश, धर्म, अर्थ के नामाधार पर
आदमी आदमी में करना
भेद-विभेद,
किसी को निम्न
किसी को ठहराना श्रेष्ठ,
किसी को कहना अपना
किसी को कहना पराया —
आज के उभरते-सँवरते नये विश्व में
गंभीर अपराध है,
अक्षम्य अपराध है।
.
करना होगा नष्ट-भ्रष्ट
ऐसे व्यक्ति को / ऐसे समाज को
जो आदमी-आदमी के मध्य
विभाजन में रखता हो विश्वास
अथवा
निर्धनता चाहता हो रखना क़ायम।
.
सदियों के अनवरत संघर्ष का
सह-चिन्तन का
निष्कर्ष है कि
हमारी-सबकी
जाति एक है — मानव,
हमारा-सबका
वंश एक है — मनु-श्रद्धा,
हमारा-सबका
धर्म एक है — मानवीय,
हमारा-सबका
वर्ग एक है — श्रमिक।
.
रंग रूप की विभिन्नता
सुन्दर विविधरूपा प्रकृति है,
इस पर विस्मय है हमें
इस पर गर्व है हमें,
सुदूर आदिम युग में
लम्बी सम्पर्क दूरियों ने
हमें भिन्न-भिन्न भाषा-बोल दिए,
भिन्न-भिन्न लिपि-चिन्ह दिए।
.
किन्तु आज
इन दूरियों को
ज्ञान-विज्ञान के आलोक में
हमने बदल दिया है नज़दीकियों में,
और लिपि-भाषा भेद का अँधेरा
जगमगा दिया है
पारस्परिक मेल-मिलाप के प्रकाश में,
मैत्री-चाह के अदम्य आवेग ने
तोड़ दी हैं दीवारें / रेखाएँ
जो बाँटती हैं हमें
विभिन्न जातियों, वंशों, धर्मों, वर्गों में।
.
 
(47) भ्रष्टाचार
.
गाजर घास-सा
चारों तरफ़
क्या ख़ूब फैला है !
देश को हर क्षण
पतन के गर्त में
गहरे ढकेला है,
करोड़ों के
बहुमूल्य जीवन से
क्रूर वहशी
खेल खेला है !
.
वर्जित गलित
व्यवहार है,
दूषित भ्रष्ट
आचार है।
.
 
(48) अंत
.
जमघट ठगों का
कर रहा जम कर
परस्पर मुक्त जय-जयकार !
.
शीतक-गृहों में बस
फलो-फूलो,
विजय के गान गा
निश्चिन्त चक्कर खा,
हिँडोले पर चढ़ो झूलो !
जीवन सफल हो,
हर समस्या शीघ्र हल हो !
.
धन सर्वस्व है, वर्चस्व है,
धन-तेज को पहचानते हैं ठग,
उसकी असीमित और अपरम्पार महिमा
जानते हैं ठग !
.
किन्तु;
सब पकड़े गये
क़ानून में जकड़े गये
सिद्ध स्वामी; राज नेता सब !
धूर्त मंत्री; धर्मचेता सब !
.
अचम्भा ही अचम्भा !
हिडिंबा है; नहीं रम्भा !
.
मुखौटे गिर पड़े नक़ली
मुखाकृति दिख रही असली !
.
 
(49) रक्षा
.
देश की नव देह पर
चिपकी हुई
जो अनगिनत जोंके-जलौकें,
रक्त-लोलुप
लोभ-मोहित
बुभुक्षित
जोंके-जलौकें —
आओ
उन्हें नोचें-उखाड़ें,
धधकती आग में झोंकें !
उनकी
आतुर उफ़नती वासना को
फैलने से
सब-कुछ लील लेने से
अविलम्ब रोकें !
.
देश की नव देह
यों टूटे नहीं,
ख़ुदगरज़ कुछ लोग
विकसित देश की सम्पन्नता
लूटे नहीं !
.
 
(50) तमाशा
.
तुम भी घिसे-पिटे सिक्के
फेंक कर चले गये ?
अफ़सोस
कि हम इस बार भी छले गये !
.
देखो —
खोटा सिक्का है न
‘धर्म-निरपेक्षता’ का ?
और दूसरा यह
‘सामाजिक न्याय-व्यवस्था’ का ?
मात्र ये नहीं
और हैं सपाट घिसे काले सिक्के —
‘राष्ट्रीय एकता’ के / ‘संविधान-सुरक्षा’ के
जो तुम इस बार भी
विदूषक के कार्य-कलापों-सम
फेंक कर चले गये !
.
तुम तो भारत-भाग्य-विधाता थे !
तुमसे तो
चाँदी-सोने के सिक्कों की
की थी उम्मीद,
किन्तु की कैसी मिट्टी पलीद !
.
अद्भुत अंधेरे तमाशा है
घनघोर निराशा है,
यह किस जनतंत्र-प्रणाली का ढाँचा है ?
जनता के मुँह पर
तड़-तड़ पड़ता तीव्र तमाचा है !
.
 
(51) वोटों की दुष्टनीति
.
दलितों की गलियों से
कूचों और मुहल्लों से,
उनकी झोपड्पट्टी के
बीचों-बीच बने-निकले
ऊबड़-खाबड़, ऊँचे-नीचे
पथरीले-कँकरीले सँकरे पथ से
निकल रहा है
दलितों का
आकाश गुँजाता, नभ थर्राता
भव्य जुलूस !
.
नहीं किराये के
गलफोडू नारेबाज़ नक़लची
असली है, सब असली हैं जी —
मोटे-ताजे़, हट्टे-कट्टे
मुश्तंडे-पट्ठे,
कुछ तोंद निकाले गोल-मटोल
ओढ़े महँगे-महँगे खोल !
.
सब देख रहे हैं कौतुक —
दलितों के
नंग-धड़ंगे घुटमुंडे
काले-काले बच्चे,
मैली और फटी
चड्डी-बनियानों वाले
लड़के-फड़के,
झोंपड़ियों के बाहर
घूँघट काढ़े दलितों की माँ-बहनें
क्या कहने !
चित्र-लिखी-सी देख रही हैं,
पग-पग बढ़ता भव्य जुलूस,
दलितों का रक्षक, दलितों के हित में
भरता हुँकारें, देता ललकारें
चित्र खिँचाता / पीता जूस !
निकला अति भव्य जुलूस !
कल नाना टीवी-पर्दों पर
दुनिया देखेगी
यह ही, हाँ यह ही —
दलितों का भव्य जुलूस !
.
अफ़सोस !
नहीं है शामिल इसमें
दलितों की टोली,
अफ़सोस !
नहीं है शामिल इसमें
दलितों की बोली !
.
 
(52) सार्थकता
.
जिस दिन
मानव-मानव से प्यार करेगा,
हर भेद-भाव से
ऊपर उठ कर,
भूल
अपरिचित-परिचित का अन्तर
सबका स्वागत-सत्कार करेगा,
पूरा होगा
उस दिन सपना !
विश्व लगेगा
उस दिन अपना !
.
 
(53) अलम्
.
आहों और कराहों से
नहीं मिटेगी
आहत तन की, आहत मन की पीर !
.
दृढ़ आक्रोश उगलने से
नहीं कटेगी
हाथों-पैरों से लिपटी ज़ंजीर !
.
जीवन-रक्त बहाने से
नहीं घटेगी
लहराती लपटों की तासीर !
.
आओ —
पीड़ा सह लें,
बाधित रह लें,
पल-पल दह लें !
.
करवट लेगा इतिहास,
इतना रखना विश्वास !
.
 
(54) सम्भव / 1
.
आओ
चोट करें,
घन चोट करें —
परिवर्तन होगा,
धरती की गहराई में
कम्पन होगा,
चट्टानों की परतें
चटखेंगी,
अवरोधक टूटेंगे,
फूटेगी जल-धार !
.
आओ
चोट करें,
मिल कर चोट करें —
स्थितियाँ बदलेंगी,
पत्थर अँकुराएंगे,
लह-लह
पौधों से ढक जाएंगे !
.
 
(55) सम्भव / 2
.
आओ
टकराएँ,
पूरी ताक़त से टकराएँ,
आखि़र
लोहे का आकार
हिलेगा,
बंद सिंह-द्वार
खुलेगा !
मुक्ति मशालें थामे
जन-जन गुज़रेंगे,
कोने-कोने में
अपना जीवन-धन खोजेंगे !
नवयुग का तूर्य बजेगा,
प्राची में सूर्य उगेगा !
.
आओ
टकराएँ,
मिल कर टकराएँ,
जीवन सँवरेगा,
हर वंचित-पीड़ित सँभलेगा !
.
 
(56) विपत्
.
आखि़र,
गया थम !
उठा
चीखता
तोड़ता - फोड़ता
लीलता
क्रुद्ध अंधड़ !
.
तबाही.... तबाही.... तबाही !
.
इधर भी; उधर भी
यहाँ भी; वहाँ भी !
दीखते
खण्डहर.... खण्डहर.... खण्डहर,
अनगिनत शव !
सर्वत्र निस्तब्धता,
थम गया रव !
.
दबे,
चोट खाये,
रुधिर - सिक्त
मानव... मवेशी... परिन्दे
विवश तोड़ते दम !
.
भयाक्रांत सुनसान में
सनसनाती हवा,
खा गया
अंग-प्रति-अंग
लकवा !
अपाहिज
थका शक्ति-गतिहीन जीवन,
विगत-राग धड़कन !
.
भयानक क़हर
अब गया थम,
बचे कुछ
उदासी-सने चेहरे नम !
.
सदा के लिए
खो
घरों-परिजनों को,
बिलखते
बेसहारा !
असह
कारुणिक
द्रश्य सारा !
.
चलो,
तेज़ अंधड़
गया थम !
.
गहर ग़मज़दा हम !
.
 
(57) स्व-तंत्र
.
आकाश है सबके लिए,
अवकाश है सबके लिए !
.
विहगो !
उड़ो,
उन्मुक्त पंखों से उड़ो !
.
ऊँची उड़ानें
शक्ति-भर ऊँची उड़ानें
दूर तक
विहगो भरो !
विश्वास से ऊपर उठो;
गन्तव्य तक पहुँचो,
अभीप्सित लक्ष्य तक पहुँचो !
.
ऊँचे और ऊँचे और ऊँचे
तीव्र ध्वनि-गति से उड़ो,
निडर होकर उड़ो !
आकाश यह
सबके लिए है —
असीमित
शून्याकाश में
जहाँ चाहो मुड़ो,
जहाँ चाहो उड़ो
.
ऐसे मुड़ो; वैसे मुड़ो,
ऐसे उड़ो; वैसे उड़ो,
सुविधा व सुभीते से उड़ो !
.
अपने प्राप्य को
हासिल करो !
स्वच्छंद हो, निर्द्वन्द्व हो,
ऊर्ध्वगामी, ऊर्ध्वमुख;
गगनचुम्बी उड़ानें
दूर तक
विहगो भरो !
.
न हो
कोई किसी की राह में,
बाधक न हो
कोई किसी की
पूर्ण होती चाह में !
.
स्वाधीन हों
स्वानुशासन में बँधे,
हम-राह हों
सँभले सधे!
.
 
(58) आतंक के घेरे में
.
एक बहुत बड़ी और गहरी
साज़िश की गिरफ़्त में है देश !
.
चालाक और धूर्त गिरोहों के
चंगुल में फँसा
छद्म धर्म और बर्बर जातीयता के
दलदल में धँसा,
एक बहुत बड़ी और घातक
जहालत में है देश !
.
आत्मीय रिश्तों का पक्षधर
दोस्ती के
सपनों व अरमानों का घर,
एक बहुत बड़ी और भयावह
दहशत में है देश !
.
संलग्न
सभ्य और नये इंसानों की अवतारणा में,
संलग्न
शांति और अहिंसा की
कठिनतम साधना में,
एक बहुत बड़ी और भारी
मुसीबत में है देश !
.
 
(59) धर्मयज्ञ
.
आधुनिक विश्व में
‘धर्म’ के नाम पर
कैसा जुनून है ?
सभ्य प्रदेशों में
ज़िन्दा
बर्बर ‘कानून’ है,
सर्वत्र -
ख़ून-ही-ख़ून है !
.
नये इंसानो !
बेहतर की कामना करो,
धर्म के ठेकेदारों का
सामना करो !
.
विकृत धर्मों की
खुलकर अवमानना हो
(चाहे व्यापक विनाश सम्भावना हो।)
.
मनुष्य —
मनुष्य है,
पशु नहीं !
उसे प्रबोध दो,
वह
समझेगा, सँभलेगा, बदलेगा !
.
 
(60) आरज़ू
.
कितना अच्छा होगा
जब
दुनिया में सिर्फ़ रहेंगे
ईश्वर से अनभिज्ञ,
प्राणी-प्राणी
प्रेम-प्रतिज्ञ !
.
फिर
ना मंदिर होंगे
ना मसजिद
ना गुरुद्वारे
ना गिरजाघर !
.
कितनी होगी हैरत !
मारेगा कौन किसे ?1
फिर कौन करेगा नफ़रत ?
सिर्फ़
मुहब्बत होगी,
होगी गै़रत !
.
सब ‘तनखैया’ होंगे,
भैया-भैया होंगे !
.
 
(61) सन् 1986 ई. में
.
इसने
उसको
भून दिया
गोली से;
क्योंकि
भिन्न था
वह
बोली से !
.
 
(62) अग्नि-परीक्षा
.
काली भयानक रात,
चारों ओर
झंझावात,
पर,
जलता रहेगा—
दीप...
मणिदीप
सद्भाव का,
सहभाव का !
.
उगती जवानी
देश की
होगी नहीं गुमराह !
उजले देश की
जाग्रत जवानी
लक्ष्य युग का भूल
होगी नहीं गुमराह
तनिक तबाह !
.
मिटाना है उसे —
जो कर रहा हिंसा,
मिटाना है उसे —
जो धर्म के उन्माद में
फैला रहा नफ़रत,
लगाकर घात
गोली दाग़ता है
राहगीरों पर
बेक़सूरों पर !
मिटाना है उसे—
जिसने बनायी ;
धधकती बारूद-घर
दरगाह !
.
इन गंदे इरादों से
नये युग की जवानी
तनिक भी
होगी नहीं गुमराह !
.
चाहे रात काली और हो,
चाहे और भीषण हों
चक्रवात-प्रहार,
पर,
सद्भाव का : सहभाव का
ध्रुव-दीप
मणि-दीप
निष्कम्प
जलता रहेगा !
.
साधु जीवन की
सतत साधक जवानी
आधुनिक,
होगी नहीं गुमराह !
.
भले ही
वज्रवाही बदलियाँ छाएँ,
भले ही
वेगवाही आँधियाँ आएँ,
सद्भावना का दीप
सम्यक् धारणा का दीप
संशय-रहित हो
अविराम
यथावत्
जलता रहेगा !
एक पल को भी
न टूटेगा
प्रकाश-प्रवाह !
.
विचलित हो,
नहीं होगी
जवानी देश की
गुमराह !
.
उभरीं विनाशक शक्तियाँ
जब-जब,
मनुजता ने
दबा कुचला उन्हें
तब-तब !
.
अमर —
विजय विश्वास !
इतिहास
चश्मदीद गवाह !
जलती जवानी देश की
होगी नहीं
गुमराह !
.
एकता को
तोड़ने की साज़िशें
नाकाम होंगी,
हम रहेंगे
एक राष्ट्र अखंड
शक्ति प्रचंड !
.
सहन
हरगिज़ नहीं होगा
देश के प्रति
छल-कपट
विश्वासघात
गुनाह !
.
मेरे देश की
विज्ञान-आलोकित जवानी
अंध-कूपों में
कभी होगी नहीं गुमराह !
.
 
(63) नये इंसानों से
.
पहले
सोचते हैं हम
अपने घर-परिवार के लिए।
.
फिर —
अपने धर्म
अपनी जाति
अपने प्रांत
अपनी भाषा, और
अपनी लिपि के लिए !
.
आस्थाएँ: संकुचित।
निष्ठाएँ: सीमित परिधि में कै़द।
.
हम अपने इस सोच की
रक्षा के लिए
मानव-रक्त की
नदियाँ बहा देते हैं,
पड़ोसियों को
गोलियों से भून देते हैं,
वहशी बन जाते हैं
आदमख़ोर हिंस्र
जानवर से भी अधिक,
भयानक शक़्ल
धारण कर लेते हैं !
हमारे ‘महान’ और ‘शहीद’ बनने का
एक मात्र रास्ता यही है !
.
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
यह सोच
हमारी चेतना का
अंग बन चुका है,
हम इससे मुक्त नहीं हो पाते !
.
बार-बार हमारा ईश्वर
हमें उकसाता है —
हम दूसरों के ईश्वरों की
हत्या कर दें
उनके अस्तित्व चिन्ह तोड़ दें
और स्वर्ग का स्थान
केवल अपने लिए
सुरक्षित समझें।
.
साक्षी है इतिहास
कि देश हमें नहीं दिखता,
विश्व-मानवता का लिबास
हमें नहीं फबता।
.
इस पृथ्वी पर मात्रा
हम रहेंगे —
हमारे धर्म वाले
हमारी जाति वाले
हमारे प्रांत वाले
हमारी ज़बान वाले
हमारी लिपि वाले,
यही हमारा देश है,
यही हमारा विश्व है !
.
कौन तोड़ेगा
इस पहचान को ?
ख़ाक करेगा
इस गलीज़ जहान को ?
.
नये इंसानो !
आओ, क़रीब आओ
और मानवता की ख़ातिर
धर्म-विहीन, जाति-विहीन
समाज का निर्माण करो
देशों की
भौगोलिक रेखाएँ मिटा कर !
विभिन्न भाषाओं
विभिन्न लिपियों को
मानव-विवेक की
उपलब्धि समझो !
.
नये इंसानो !
अब चुप मत रहो
तटस्थ मत रहो !
.
 
(64) दूसरा मन्वन्तर
.
भविष्य वह
आएगा कब
जब —
मनुष्य कहलाएगा
मात्र ‘मनुष्य’ !
.
उसकी पहचान
जुड़ी रहेगी कब-तलक
देश से
धर्म से
जाति-उपजाति से
भाषा-विभाषा से
रंग से
नस्ल से ?
.
मनुष्य के मौलिक स्वरूप को
किया जाएगा रेखांकित कब ?
मनुष्य को
‘मनुष्य’ मात्र
किया जाएगा लक्षित कब ?
.
उसका लोक एक है
उसकी रचना एक है
उसकी वृत्तियाँ एक हैं
उसकी आवश्यकताएँ एक हैं,
उसका जन्म एक है
उसका अन्त एक है।
.
मनुष्य का विभाजन
कब-तलक
किया जाता रहेगा ?
वह आख़िर कब-तलक
बर्बर मन की
चुभन-शताब्दियाँ सहेगा ?
.
तोड़ो —
देशों की कृत्रिम सीमा-रेखाओं को,
तोड़ो—
धर्मों की
असम्बद्ध — अप्रासंगिक, दक़ियानूस
आस्थाओं को,
तोड़ो —
जातियों-उपजातियों की
विभाजक व्यवस्थाओं को।
.
अर्जित हैं
भाषाओं-विभाषाओं की भिन्नताएँ,
प्रकृति नियंत्रित हैं
रंगों-नस्लों की
बहुविध प्रतिमाएँ !
.
ये सब
मानव को मानव से
जोड़ने में
बाधक न हों,
ये सब
मानव को मानव से
तोड़ने में
साधक न हों !
.
अवतरित हो
नया देवदूत, नया पैग़म्बर, नया मसीहा,
इक्कीसवीं सदी का
महान मानव-धर्म
प्रतिष्ठित हो,
अन्य लोकों में पहुँचने के पूर्व
मानव की पहचान
सुनिश्चित हो !
.
 
(65) इतिहास - सृष्टाओ!
.
इंसान की तक़दीर को
बदले बिना —
इंसान जो
अभिशप्त है : संत्रस्त है
जीवन-अभावों से !
इंसान जो
विक्षत प्रताड़ित क्षुब्ध पीड़ित
यातनाओं से, तनावों से !
.
उस दुखी इंसान की
तक़दीर को बदले बिना ;
संसार की तसवीर को
बदले बिना —
संसार जो
हिंसा,
विगर्हित नग्न पशुता ग्रस्त,
रक्त-रंजित,
क्रूरता से युक्त
घातक अस्त्र-बल-मद-मस्त !
.
उस बदनुमा संसार की
तसवीर को बदले बिना ;
इतिहास-सृष्टाओ !
सुखद आरामगाहों में
तनिक सोना नहीं, सोना नहीं !
संघर्ष-धारा से विमुख
होना नहीं, होना नहीं !
.
हर भेद की प्राचीर को
तोड़े बिना,
पैरों पड़ी ज़ंजीर को
तोड़े बिना,
इतिहास-सृष्टाओ !
सतत श्रम-साध्य
निर्णायक विजय-अवसर
अरे, खोना नहीं, खोना नहीं ।
.
इंसान की तक़दीर को
बदले बिना,
संसार की तसवीर को
बदले बिना,
सोना नहीं, सोना नहीं !
.
 
(66) दरिद्र-नारायण
.
दो जून
रोटी तक जुटाने में
नहीं जो कामयाब,
ज़िन्दगी
उनके लिए -
क्या ख़ाक होगी ख़्वाब !
कोई ख़ूबसूरत ख़्वाब !
.
उनके लिए तो
ज़िन्दगी —
बस,
कश-म-कश का नाम,
दिन-रात
पिसते और खटते
हो रही उनकी
निरन्तर
उम्र तमाम !
.
वंचित
उच्चतर अनुभूतियों से जो —
भला
उनके लिए
संस्कृति-कला का
अर्थ क्या ?
उपयोग क्या ?
.
सब व्यर्थ !
(जो न समर्थ।)
यद्यपि; सतत श्रम-रत;
किन्तु जीवन-भर
निराश-हताश !
जिनके पास
थोड़ा चैन करने को
नहीं अवकाश !
.
उनके लिए है
नृत्य-नाटक-काव्य के
सारे प्रदर्शन,
दूरदर्शन
व्यंग्य मात्र !
वे - केवल हमारे
खोखले ओछे अहं के
तुष्टि-पूरक-पात्र !
.
पहले चाहिए उन्हें —
शोषण-मुक्ति,
महिमा-युक्त गरिमा,
मान की सम्मान की रोटी,
सुरक्षा और शिक्षा !
चाहिए ना एक कण भी
राज्य की या व्यक्ति की
करुणा, दया, भिक्षा !
.
 
(67) माहौल
.
देश के असली खेवनहार —
नेता अफ़सर ठेकेदार !
सारी दौलत के हक़दार,
राष्ट्र-भक्त झण्डाबरदार !
इनकी तिकड़म का संसार
करदे शासन को लाचार,
हमको तुमको बे-घरबार
ये मशहूर बड़े बटमार !
दुष्टाचारी हैं मक्कार,
है धिक्कार इन्हें धिक्कार !
.....
गूँजी किसकी यह ललकार —
जागी जनता, भागो यार !
.
 
(68) विजय-विश्वास
.
लड़ाई हमारी
अधूरी रहेगी नहीं,
बीच में ही
रुकेगी नहीं
जो —
मेहनतकश सबल साहसिक शूर है,
नाम : ‘मज़दूर’ है।
.
उसकी लड़ाई
अन्तिम विजय तक
थमेगी नहीं !
और होगी कड़ी
और होगी बड़ी,
संसार में
फैलती जायगी यह
लगातार !
बर्बर दमन से
कभी ख़त्म होगी नहीं,
कमज़ोर धीमी
पड़ेगी नहीं !
.
आश्वस्त हम —
यह युद्ध
शोषण-विरुद्ध,
अवरुद्ध होगा नहीं !
.
हर रुकावट
मिटाकर,
लड़ाई हमारी
सतत
भय-मुक्त
जारी रहेगी !
रुकेगी नहीं !
.
 
(69) मंत्र
.
स्थापित हो
समता
मानव-मानव में समता
युग-युग वांछित-इच्छित समता !
.
प्रजाति-जाति-वर्ण-धर्म मुक्त
हो मनुष्य-लोक,
हो नहीं
मनुष्य के मिलाप में
भेद-भाव, रोक-टोक !
पहचान मनुज की
मात्र एक —
मानव तन, मानव मन।
अनुभव-चिन्तन से
उपजे विवेक
पहचान मनुज की
मात्र एक।
.
अवतरित हो
ममता
मानव-मानव में ममता
मादक मादन मायल ममता।
.
ध्वस्त करो
अन्धी पौराणिकता
मानव-मानव के प्रति पाशविकता।
मानव ! मत भटको अब,
कल्पित भाग्य-विधानों पर
मानव ! मत अटको अब।
.
मूरखता, मूरखता, मूरखता।
केवल वंचकता, वंचकता।
.
इससे मुक्त करो
जीवन और मनुज को,
धृष्ट-दुष्ट
धर्मध्वजियों धूर्तों से
रक्षित हो मानवता।
हो सदा-सदा को दूर
विषमता,
जागे दलितों में
अपराजित अद्भुत क्षमता!
स्थापित हो
इंसानी दुनिया में
खुशहाली
माली समता,
सामूहिक सामाजिक
गौरवशाली समता!
.
 
(70) प्रतिरोध
.
विकास-राह रुद्ध ;
जाति-युद्ध।
.
वंश-दर्प
बन गया
कराल काल-सर्प।
.
दंश
तीव्र दंश,
सृष्टि के महान् जीव का
अथाह भ्रंश।
.
क्षुद्र संकुचित हृदय
उगल रहा ज़हर
कि
ढा रहा क़हर !
.
मनुष्यता
लहू-लुहान,
जातुधान
गा रहा —
असार
द्वेष-युक्त
जाति-गान।
.
क्रूर
गर्व-चूर,
सभ्यता-विहीन
आत्म-लीन ।
.
बढ़ो, बढ़ो !
पशुत्व के अधीन
इस मनुष्य के
उगे विषाण
और
धारदार दाँत
तोड़ने !
अमानवीय
जात-पाँत तोड़ने,
समाज और व्यक्ति को
सशक्त एक सूत्र में
अटूट जोड़ने।
.
 
(71) पतन
.
देश में
विशाल रूप में
उमड़ रहा
उफ़न रहा —
जाति-द्वेष: धर्म-द्वेष
वर्ण-भेद: जन्म-भेद
मैल ! मैल ! मैल !
गर्द ! गर्द ! गर्द !
.
तीव्र मानसिक तनाव
शत्रु-भाव।
.
है विषाक्त हर दिशा,
निगल रही विवेक को
अशुभ गहन घृणा-निशा।
.
सतर्क और भीत
व्यक्ति-व्यक्ति से।
हो रहा प्रतीत —
लौट आ रहा
अतीत,
हिंस्र जंगली,
ब-ख़ूब
चल रही
समाज में
तथाकथित कुलीन
जाति-दर्प धाँधली।
.
मनुष्य :
जाति-धर्म-वर्ण-जन्म से विभक्त
दब रहा निरीह
मिट रहा अशक्त।
शर्म ! शर्म ! शर्म !
निंद्य ! निंद्य ! निंद्य !
.
मन-मुटाव
छल-कपट
दुराव।
.
सावधान !
धैर्यवान नौजवान !
जाति-द्वेष-भावना-प्रवाह से,
क्रूर जातिगत गुनाह से
सावधान !
वर्ण-जन्म धारणा
प्रभाव से,
एकता-विनाशिनी
विलग-विचारणा
प्रभाव से,
सावधान,
नौजवान !
.
 
(72) विचित्र
.
यह कितना अजीब है !
आज़ादी के
तीन-तीन दशक
बीत जाने के बाद भी
पाँच-पाँच पंचवर्षीय योजनाओं के
रीत जाने के बाद भी
मेरे देश का
आम आदमी ग़रीब है !
बेहद ग़रीब है !
यह कितना अजीब है !
.
सर्वत्र
धन का, पद का, पशु का
साम्राज्य है,
यह कैसा स्वराज्य है ?
.
धन, पद, पशु
भारत-भाग्य-विधाता हैं,
चारों दिशाओं में
उन्हीं का जय-जयकार,
उन्हीं का अहंकार
व्याप्त है,
परिव्याप्त है,
और सब-कुछ समाप्त है !
शासन
अंधा है, बहरा है,
जन-जन का संकट
गहरा है !
(खोटा नसीब है !)
.
लगता है —
परिवर्तन दूर नहीं,
क़रीब है !
किन्तु आज
यह सब
कितना अजीब है !
.
 
(73) त्रासदी
.
ग़रीब था
अछूत था
डर गया !
.
भूख से
मार से
मर गया !
.
शोक से
लोक से
तर गया !
.
 
(74) कुफ्र
.
लाश
जल रही
मसान में
किसी ग़रीब की,
बद-नसीब की !
.
कुटुम्ब
स्तब्ध...सन्न,
विप्र अति प्रसन्न
मृत्यु-भोज
ऐश-मौज !
.
किन्तु
नौजवान आज
ढोंग सब बहा
धता बता रहा,
पुरोहिती
मिटा रहा,
बदल रहा गरुड़-पुराण,
प्रेत-कर्म का विधान।
.
विप्र खिन्न,
चीखता
कलियुगी...
.
वस्तुतः
यही
नये समाज की
विराट सुगबुगी !
.
 
(75) आह्नान
.
रहो मत मूक,
की नहीं तुमने
कहीं,
कोई चूक।
बोलो बात —
बेलाग
खरी
दो-टूक।
.
सत्य को
तुमने सदा
सत्य कहकर ही
पुकारा।
इसमें —
है नहीं अपराध
कोई भी
तुम्हारा।
.
किन्तु
जिसने सत्य को
हठधर्मिता से
झूठ ठहराया,
वास्तविकता की
उपेक्षा की,
वंचना का धर्म
अपनाया —
.
उस धूर्त के सम्मुख
मत रहो खामोश !
अभिव्यक्त कर आक्रोश
गरजो,
पुरज़ोर गरजो !
अनीति-विरुद्ध
प्रज्ञा-प्रबुद्ध !
.
 
(76) विश्वस्त
.
सतत संघर्ष-रत
सर्वहारा,
ज़िन्दगी
बदली नहीं।
अडिग अनथक अकेला
सर्वहारा,
स्थिति
यथावत्
सुधरी नहीं, सँभली नहीं।
.
व्यवस्था को
निरन्तर
और अंतिम साँस तक
दलित देगा चुनौती,
याद रक्खो —
तड़पती घायल
लहू-मुख चीखती
जनता नहीं सोती !
.
विद्रोह का संकल्प
मर्मान्तक प्रहारों से
कम नहीं होता,
प्रतिबद्ध को
क्षति का, पराजय का
ग़म नहीं होता !
आवेश का सैलाब
आएगा !
पाशव अमानुष वर्ग के
मज़बूत दुर्गों को
ढहाएगा !
.
 
(77) अनाहत
.
चक्रवातों के
थपेड़ों से घिरा
इंसान,
बन गया चट्टान !
जूझता है
बार-बार,
बुलन्द हिम्मत से
सुदृढ़
आयत्त आस्थावान !
.
कर रहा पहचान
घातों से
प्रहारों से
गरजती
अग्नि-धारों से,
नहीं हैरान।
.
बढ़ता गया
अन्तिम विजय
विश्वास,
गढ़ने
नया इतिहास।
.
अपराजेय
जीवन का —
अदम्य
प्रबल
मनोबल,
फूँकता जंगल,
बनाता
ज़िन्दगी का
नव धरातल।
.
 
(78) जनवादी
.
अनुचित करेंगे नहीं,
अनुचित सहेंगे नहीं!
.
अधिकार-मद-मत्त
सत्ता-विशिष्टो !
तुम्हारी
सफल धूर्तता
और
चलने न देंगे।
.
परलोक
या
लोक-कल्याण के नाम पर
व्यक्ति को
और
छलने न देंगे।
.
मानव
अनाचार-नरकाग्नि में
अब दहेंगे नहीं।
स्वैरवर्ती
निरंकुश
नये विश्व में
शेष
निश्चित रहेंगे नहीं।
.
 
(79) एकजुट
.
मिलेगी
हमें जीत हरदम,
मिला कर
चलेंगे
क़दम से क़दम !
.
समता समर्थक
जनवाद साधक
अंतिम चरण तक
रहेंगे
समर-रत,
न होंगे
कभी नत !
.
बढ़ेंगे
मिला कर
क़दम से क़दम,
एकजुट शक्ति
विश्वास
होगा न कम !
.
 
(80) संक्रमण
.
यह नहीं होगा —
बंदूक की नोक
सचाई को दबाये रखे,
आदमी को
आततायी के पैरों पर
झुकाये रखे,
यह नहीं होगा !
.
पशुता की गुलामी
अनेकों शताब्दियाँ
ढो चुकी हैं,
लेकिन अब
ऐसा नहीं होगा !
.
यातनाओं की किरचें
भोथरी हो चुकी हैं,
क्या तुम नहीं देखते —
क्रूर जल्लादों की
वहशी योजनाओं की
बुनियादें हिल रही हैं ?
मौत की काल-कोठरी बने
हर देश को
ज़िन्दगी की
हवा और रोशनी मिल रही है !
.
घिनौनी साज़िशों का
पर्दा उठ गया है,
सारा माहौल ही
अब तो नया है !
.
 
(81) मज़दूरों का गीत
.
मिल कर क़दम बढ़ाएँ हम
जय, फिर होगी वाम की !
.
शोषित जनता जागी है
पीड़ित जनता बाग़ी है
आएँ, सड़कों पर आएँ,
क्या अब चिंता धाम की !
.
ना यह अवसर छोड़ेंगे
काल-चक्र को मोडेंगे
शक़्लें बदलेंगे, साथी
मूक सुबह की, शाम की !
.
नारा अब यह घर-घर है
हर इंसान बराबर है
रोटी जन-जन खाएगा
अपने-अपने काम की !
.
झेलें गोली सीने से
लथपथ ख़ून-पसीने से
इज़्ज़त कभी घटेगी ना
‘मेहनतकश’ के नाम की !
.
 
(82) श्रमजित्
.
घर-घर नया सबेरा लाने वाले हम
दुनिया को रंगीन बनाने वाले हम
कलियों को मधु-गंध दिलाने वाले हम
कंठों में नव-गान बसाने वाले हम !
.
पैरों में झनकार भरी हमने-हमने
जीवन में रस-धार भरी हमने-हमने
आँखों में सुन्दर स्वप्न सजाये हमने
भोर बसन्त-बहार भरी हमने-हमने !
.
हम जीवन जीने योग्य बनाने में रत
‘श्रम ही है पुरुषार्थ’ हमारा ऐसा मत !
.
 
(83) वर्षान्त पर
.
"प्रिय भाई,
बधाई !
.
नव-वर्ष
सत्फल भाग्यशाली हो,
अत्यधिक सुख दे
अमित सम्पन्नता दे
विपुल यश दे
रस-कलश दे !"
.
मित्रों की
सहज
या
औपचारिक
ये अनेकानेक
मंगल कामनाएँ
और सुन्दर भावनाएँ
वर्ष-भर
छलती रहीं,
सौभाग्य को
दलती कुचलती रहीं !
.
सुख को —
तरसता ही रहा,
सम्पन्नता पाने —
कलपता ही रहा,
यश के लिए —
उत्सुक तड़पता ही रहा,
रस की
छलकती मधुर
कनक-कटोरियों को
मन ललकता ही रहा !
.
नव-वर्ष का
जैसा
किया था आगमन-उत्सव,
नहीं
वैसी बिदाई !
क्या कहें कुछ और
प्रिय भाई !
.
 
(84) विसंगति
.
हम
आधुनिक नहीं,
किन्तु युग ‘आधुनिक’ है !
(कथन अलौकिक है !)
.
यद्यपि
तन
अत्याधुनिक लिबास धारे,
किन्तु
मन जकड़े हैं हमारे
रूढ़ियों
अंध-विश्वासों से,
गतानुगत परम्पराओं
असंगत अर्थहीन प्रथाओं
आदिम संस्कारों से,
हस्त-रेखाओं
सितारों से !
.
मानसिकता हमारी
प्रागैतिहासिक है,
किन्तु युग ‘आधुनिक’ है !
.
आधुनिकता : मात्र मुखौटा है
हमारे
दक़ियानूसी चेहरों पर,
आधुनिकता :
जगर-मगर करता
खोटा गोटा है
कोठियों पर
घरों पर।
.
हमारा पुराणपंथी चिन्तन
हमारा भाग्यवादी दर्शन
धकेलता है हमें
पीछे... पीछे... पीछे
अतीत में
सुदूर अतीत में
असामयिक मृत व्यतीत में।
.
वैज्ञानिक उपलब्धियाँ हैं
हमारे पास;
किन्तु
वैज्ञानिक दृष्टि नहीं,
दृष्टिकोण नहीं —
.
(स्थिति यह
कोई उपेक्षणीय
गौण नहीं।
अद्भुत है,
अश्रुत है।)
.
लकीर के फ़कीर हम
आँख मूँद कर चलते हैं,
अपने को आधुनिक कह
अपने को ही छलते हैं !
.
कहाँ है
नये ज़माने का
नया इंसान ?
मूर्ख महन्तों को
पुजते देख
अक़्ल है हैरान !
.
 
(85) प्रजातंत्र
.
जिसका
उपद्रव-मूल्य है
वह पूज्य है !
जिसका
जितना अधिक उपद्रव-मूल्य है
वह
उतना ही अधिक
पूज्य है !
अनुकरणीय है !
अधिकांग है,
और सब विकलांग हैं,
वंदनीय है !
.
जो
मदान्ध है
जो
कामान्ध है
क्रूर कामान्ध है
आदरणीय है,
उच्च आसन पर
सुशोभित
श्रेष्ठ समादरणीय है !
.
जो जितना मुखर
और लट्ठ है
जो
जितना कड़ुआ मुखर
और जितना निपट लट्ठ है
उसके
पीछे-आगे
दाएँ-बाएँ
ठट्ठ हैं !
उतने ही
भारी भड़कीले ठट्ठ हैं !
उसका गौरव
अनिर्वचनीय है,
उसके बारे में
और
क्या कथनीय है !
.
 
(86) लालसा
.
हम
खाते नहीं,
केवल
पेट भरते हैं,
चरते हैं।
(नियति है यह,
हमारी।)
.
खाते
तुम हो।
सृष्टि के
सर्वोत्तम पदार्थ
(हमारे लिए गतार्थ !)
.
विधाता के
सकल वरदान
संचित कर लिए
तुमने
अपने लिए,
वंचित कर हमें।
(प्रकृति है यह,
तुम्हारी।)
.
न होगा बाँस
न बजेगी बाँसुरी
न होगा दाम
न परसेगी
माँ, सुस्वादु री !
मात्र
देखेंगे
या
कथाओं में सुनेंगे,
मूक मजबूर —
.
(बादाम-काजू-पिश्ते,
अंगूर,
खीर-मोहन, रस-गुल्ले-रबड़ी।
हम से दूर !)
.
 
(87) सर्वहारा का वक्तव्य
.
लोग
हमारी भाषा में
बोल रहे हैं,
यह सच है।
.
सारे वे ख़ौफ़नाक शब्द
आज गूँज रहे हैं
संसद में
नेताओं के वक्तव्यों में
यह सच है !
.
अरे, हमारे नारे
लगा रहे तुम भी ?
अचरज
पर, सच है।
.
हलचल
तत्परता
आज अचानक
लोग
हमारे अर्गल
खोल रहे हैं,
यह सच है।
.
आला-आला अफ़सर
आज
अँधेरी झोपड़ियों में
जा-जा
दुख दर्द हमारे
पहली बार टटोल रहे हैं,
यह सच है।
.
लगता है —
‘क्रांति’ उभर आयी है !
गाँवों में / नगरों में
‘जनवादी’ फ़ौज़
उतर आयी है !
कैसा अद्भुत
जन-आन्दोलन है !
सत्ता-लोलुप नेताओं में
रातों-रात
हुआ परिवर्तन है !
.
अथवा
यह स्व-रक्षा हित
केवल आडम्बर है,
छल-छद्म भरा
मिथ्या संवेदन-स्वर है।
.
[आपात्कालीन अभिव्यक्ति]
 
(88) अभूतपूर्व
.
ऐसा
कभी हुआ नहीं —
पंगु हो गये हों
शब्द,
पैरों वाले शब्द
चलने-दौड़ने वाले शब्द,
एक नहीं
अनेक-अनेक शब्द !
.
ऐसा
कभी हुआ नहीं —
निरर्थक हो गये हों
शब्द,
विविध भंगिमाओं वाले
विविध अर्थ-गर्भी शब्द,
ऐसे खोखले हो गये हों,
बेअसर
मात्र चिन्ह-धर !
.
शब्द
बैसाखी लगाकर नहीं चलते,
उनके पदों में
पंख होते हैं,
सुदूर असीम आकाश में
सौ-सौ गज़ उछलते हैं !
गहनतम खाइयों को
लाँघ जाते हैं,
बार-बार
अनमोल माणिक
बाँध लाते हैं !
.
ऐसे शब्द
ऐसे तीव्रगामी शब्द
ऐसे तिमिर-भेदी शब्द
कभी हुआ नहीं —
लँगड़ा गये हों,
चकरा गये हों
ठंडा गये हों !
.
समूची ज़िन्दगी की
घनीभूत पीड़ा भरे
शब्द,
इस क़दर
छूँछे हो गये हों !
बे-तरह
हवा में खो गये हों !
.
[आपात्कालीन अभिव्यक्ति]
 
(89) आश्वास
.
घने कुहरे ने
ढक लिया आकाश,
घने कुहरे ने
भर लिया आकाश !
.
रास्ते सब बन्द हैं,
जीवन निस्पन्द है !
.
कितना
सिकुड़ गया है क्षितिज —
चारों ओर का विस्तृत क्षितिज !
धुँधले पर्यावरण में
क़ैद हैं हम,
कितना विषम है
समय की सातत्यता का क्रम !
.
ध्वनि-तरंगें रुद्ध हैं,
समूची चेतना
भयावह वातावरण में बद्ध है,
सब तरफ़
मात्र एक
स्थिर अलस मूकता का राज है,
स्तम्भित
सहमा हुआ
समस्त समाज है।
.
सुनो —
मैं आता हूँ,
सूरज की तरह आता हूँ !
दृष्टि का आलोक
मेरे पास है,
आत्म-शक्ति का
अक्षय विश्वास है !
.
अँधेरे के
कुहरे के
पर्वतों को ढहा दूंगा !
मार्ग-रोधक
सब बहा दूंगा !
.
आकाश
फिर गूँजेगा,
नाना ध्वनियों से गूँजेगा !
प्रकाश
फिर फैलेगा,
उमड़ता
लहरता
धारा-प्रवाह
प्रकाश फैलेगा।
.
 
(90) मुक्त-कण्ठ
.
कौन है
जो तुम्हें सच
बोलने नहीं देता ?
कौन है
जो तुम्हें
ज़िन्दगी की असलियत
खोलने नहीं देता ?
.
कौन है हावी
तुम्हारी चेतना पर ?
किसने
बाँध दी हैं शृंखलाएँ
अन्तःप्रेरणा पर ?
.
किसने
दबोच रखा है, भला
तुम्हारा गला ?
.
चेहरे पर अंकित
रेखाएँ घुटन की,
डबडबायी आँखें
चीखती —
निरीहता मन की !
.
कब तलक
रहेगा सूखा हलक़ ?
.
आवाज़ —
भर्रायी हुई आवाज़
बोलती है,
कितना स्पष्ट
सब बोलती है !
.
नहीं,
यह बंध
शिथिल हो,
हर धड़कन पर
शिथिल हो !
कंठ मुक्त हो,
उन्मुक्त हो !
.
बोलो —
जकड़न टूटेगी !
शब्द-शब्द से
रोशनी फूटेगी !
.
 
(91) सहभाव
.
आओµ —
दूरियाँ
देशान्तरों की
व्यक्तियों की
अत्यधिक सामीप्य में
बदलें।
बहुत मज़बूत
अन्तर-सेतु
बाँधें !
.
आओ —
अजनबीपन
हृदय का
अनुभूतियों का
सांत्वना
आश्वास में
बदलें।
परस्पर मित्राता का
गगन-चुम्बी केतु
बाँधें !
.
आओ —
अविद्या-अज्ञता
धर्मान्तरों की
भिन्नता विश्वास की
समधीत सम्यक् बोध में
बदलें।
सुनिश्चित
विश्व-मानव-हेतु
साधें !
.
 
(92) अन्तर्ध्वन्सक
.
कौन है,
वह कौन है ?
जो —
हमारे स्वप्नों में
ख़लल डालता है,
हमारे
बनाये-सजाये
चित्रों को विकृत कर
बदल डालता है!
.
उनकी विराटता को
बौना कर देता है,
उनकी उन्मुक्तता में
कुण्ठा भर देता है !
.
वह कौन है ?
वह दुस्साहसी कौन है ?
जो —
हर संगत लकीर को
जगह-जगह से तोड़ कर
असंगत लिबास पहना देता है,
परिवेश की अर्थवत्ता छीन कर
अनर्गल वैशिष्ट्य से गहना देता है !
सही परिप्रेक्ष्य से
विस्थापित कर
हास्यास्पद भूमिकाओं की
चितकबरी प्लास्टर झड़ी
दीवारों पर
उल्टा टाँग देता है !
.
हमारे विश्वासों की
जीवन्त प्रतिमाओं को
खण्डित कर
कोलतारी स्वाँग देता है !
.
यह
किसका अट्टहास है ?
चारों ओर लहराते
नागफाँस हैं !
.
पर, सावधान !
मैं
इतिहास को दोहराने नहीं दूँगा,
आतताइयों को
निरीह लाशों को रौंदते
विजय-गान गाने नहीं दूँगा !
.
इन स्वप्नों की
इन चित्रों की
गत्यात्मकता,
अनुभूत-सिद्ध वास्तविकता
दूर-पास फैले
असंख्य-अदृश्य
भेदियों के जालों को
तोड़ेगी,
मानव-मानव के बीच
पहली बार
सच्चा रिश्ता जोड़ेगी !
.
 
(93) अब नहीं
.
अब सम्भव नहीं
बीते युगों की नीतियों पर
एक पग चलना,
निरावृत आज
शोषक-तंत्र की
प्रत्येक छलना।
.
अब नहीं सम्भव तनिक
बीते युगों की मान्यताओं पर
सतत गतिशील
मानव-चेतना को रुद्ध कर
बढ़ना।
.
सकल गत विधि-विधानों की
प्रकट निस्सारता,
किंचित नहीं सम्भव
मिटाना अब
बदलते लोक-जीवन की
नयी गढ़ना।
.
शिखर नूतन उभरता है
मनुज सम्मान का,
हर पक्ष
नव आलोक में डूबा
निखरता है
दमित प्रति प्राण का,
नव रूप
प्रियकर मूर्ति में
ढल कर सँवरता है
सबल चट्टान का।
.
 
(94) मेरा देश
.
प्रत्येक दिशा में
आशातीत
प्रगति के लम्बे डग भरता,
‘वामन-पग’ धरता
मेरा देश
निरन्तर बढ़ता है !
पूर्ण विश्व-मानव की
सुखी सुसंस्कृत अभिनव मानव की
मूर्ति
अहर्निश गढ़ता है !
मेरा देश
निरन्तर बढ़ता है !
.
प्रतिक्षण सजग
महत् आदर्शों के प्रति,
बुद्धि-सिद्ध
विश्वासों के प्रति।
.
मेरा देश
सकल राष्ट्रों के मध्य अनेकों
सहयोगों के,
पारस्परिक हितों के,
आधार सुदृढ़
निर्मित करता है !
तम डूबे
कितने-कितने क्षितिजों को
मैत्री की नूतन परिभाषा से
आलोकित करता है !
समता की
अनदेखी
अगणित राहों को
उद्घाटित करता है !
.
उसने तोड़ दिये हैं सारे
जाति-भेद औ वर्ण-भेद,
नस्ल भेद औ’ धर्म-भेद।
.
सच्चे अर्थों में
मेरा देश
मनुज-गौरव को
सर्वोपरि स्थापित करता है !
मृतवत्
मानव-गरिमा को
जन-जन में
जीवित करता है !
.
मेरा देश
प्रथमतः
भिन्न-भिन्न
शासन-पद्धित वाले राष्ट्रों को
अपनाता है !
शांति-प्रेम का
अप्रतिम मंत्रा
जगत में गुँजित कर
भीषण युद्धों की
ज्वाला से आहत
मानवता को
आस्थावान बनाता है !
संदेहों के
गहरे कुहरे को चीर
गगन में
निष्ठा-श्रद्धा के
सूर्य उगाता है !
.
उन्नति के
सोपानों पर चढ़ता
मेरा देश,
निरन्तर
बहुविध बढ़ता मेरा देश !
.
प्रतिश्रुत है —
नष्ट विषमता करने,
निर्धनता हरने !
जन-मंगलकारी
गंगा घर-घर पहुँचाने !
होठों पर
मुसकानों के फूल खिलाने,
जीवन को
जीने योग्य बनाने !
.
 
(95) नहीं तो
.
यदि मेरे देश में
गाँधी और नेहरू जैसों ने
जन्म नहीं लिया होता
तोµ
हैवानियत के शिकंजे
हमारे हाथों-पाँवों में
कसे होते !
यहाँ
वहाँ
सभी जगह
मौत के सौदागर बसे होते !
.
हम
जो आज
तेज़ी से बढ़ते जाते हैं,
नये, मज़बूत और सुन्दर भारत को
फ़ौलादी दृढ़ता से
गढ़ते जाते हैं,
नयी रोशनी की किरणें
फैलाते
अज्ञान की अँधेरियों से
लड़ते जाते हैं;
घुटनों-घुटनों
फ़िरक़ापरस्ती की दलदल में
धँसे होते,
हम सब
बदरंग हो गये होते,
दिलों से
बेहद तंग हो गये होते !
हमारे एकता के स्वप्न सारे
टूटते,
पशुबल समर्थक
समृद्धि सारी
लूटते !
.
 
(96) हमारे इर्द-गिर्द
.
मेरे देश में
ओ करोड़ों मज़लूमो !
तुम्हें
अभी फुटपाथों से
छुटकारा नहीं मिला,
खौलते ख़ून के समुन्दर में
तैरते-तैरते
किनारा नहीं मिला !
बीसवीं शताब्दी के
इस आँठवें दशक में भी
सिर पर
खुला आसमान है,
नीचे
नंगी धरती।
सूनी निगाहें
ठण्डी आहें
विकलांग निरीहता
सर्दी, बरसात, आँधी !
.
मोटे-मोटे
खादीपोश
बदकिरदार
व्यापारियों-पूँजीपतियों,
मकान-मालिकों,
कॉलोनी-धारियों,
वकील-नेताओं के
मुँह में
यथा-पूर्व
विराजमान है — ‘गाँधी’!
बँगलों और कोठियों में
दीवारों पर
टँगे हैं गाँधी !
(या सलीब पर लटके हैं गाँधी!)
तिकड़मी मस्तिष्क के
बद-मिज़ाज
नये भारत के ये ‘भाग्य-विधाता’
‘एम्बेसेडर’ में
धूल उड़ाते
मज़लूमों पर थूकते
मानवता केा रौंदते
अलमस्त घूमते हैं,
किंचित सुविधाओं के इच्छुक
उनके चरण चूमते हैं !
.
मेरी पूरी पीढ़ी हैरान है !
नेतृत्व कितना बेईमान है !
.
 
(97) एक नगर और रात की चीखें
.
मन्दिरों की घण्टियाँ बज रही हैं !
सैकड़ों श्रद्धालु
हाथ जोड़े खड़े होंगे
नत-मस्तक हो रहे होंगे।
.
वृक्षों, गुम्बदों, भवनों,
खपरैलों, टिनों पर
कुहर-कण पहने
अँधेरा उतरता चला आ रहा है,
जाड़े की शाम
सात बजे से ही गहरा गयी !
घरों के द्वार-वातायन
बंद हो गये !
सड़कों पर
हलकी पीली रोशनी फेंकते हैं
बिजली के खम्भे,
दो-एक स्कूटर
या मोटर साइकिलें
भड़भड़ाती हुई निकल जाती हैं,
कभी-कभी कहीं ढोल बज उठते हैं।
बस-स्टैण्ड पर
लाउड-स्पीकर अभी बोल रहा है
अमुक-अमुक जगह पर जाने वाले
यात्रियों को आगाह करता हुआ।
.
रात का ठण्डापन बढ़ता जाता है !
रात का सूनापन बढ़ता जाता है !
.
‘यह आकाशवाणी है,
रात के पौने-नौ बजे हैं।’
और
फिर सर्कस के शेर
दहाड़ने लगे
(ज़रूर दस बजने वाले होंगे।)
सोने से पहले
नींद की गफ़लत में
डूबने से पहले
एक भिखारी
चीखता है —
‘दो-रोटी और दाल,
पेट का सवाल !
है कोई देने वाला
इतने बड़े-बड़े घरों में ?
बस, दो-रोटी और दाल,
मैं भूखा हूँ।’
.
किसी घर के द्वार नहीं खुलते,
कहीं से कोई आवाज़ नहीं आती।
भिखारी अड़ जाता है :
.
‘इस गली से
मैं
रोटी लिये बिना
नहीं जाऊँगा !’
.
और वह चीखता जाता है —
‘दो-रोटी और दाल,
पेट का सवाल !’
.
उसकी चीख
सबको दहला देती है,
सुख-सुविधाओं को चैंका देती है !
.
(भिखारी यदि ख़ूनी बन जाये,
दरवाज़ा तोड़ कर अन्दर घुस आये!)
.
आतंक की परतें
चेहरों पर बिछने लगती हैं,
घरों की रोशनियाँ
बुझने लगती हैं,
दरवाज़ों पर ताले
झूलने लगते हैं !
.
भिखारी
चीखता रहता है,
अपनी शक्ति के बाहर
चीखता रहता है।
.
और जब
किसी दयालु के दरवाज़े ने
उसे कुछ शान्त किया,
उसके बुनियादी सवाल को
एक रात के लिए
हल किया,
सन्नाटा और मुखरित हो चुका था,
वृक्षों, गुम्बदों, भवनों,
खपरैलों, टिनों पर
कुहरा और संघनित हो चुका था !
.
रात
और ठण्डी और काली
हो चुकी थी,
रात
निहायत बेशर्म और नंगी
हो चुकी थी !
.
 
(98) अंध-काल
.
सावधान पहरुओ !
सावधान !
.
छा रहे अनेक दैत्य
छीनने स्वतंत्रता मनुष्य की,
वेगवान अंधकार
लीलने किरण-किरण भविष्य की,
सावधान सैनिको !
सावधान !
सावधान पहरुओ !
सावधान !
.
आज घिर रहीं प्रगाढ़
रक्त-वर्षिणी भयान बदलियाँ,
व्योम में कड़क रहीं
विनाशिनी अधीर क्रूर बिजलियाँ,
विश्व-शान्ति रक्षको !
सावधान !
सावधान पहरुओ !
सावधान !
.
 
(99) आओ जलाएँ
.
आओ जलाएँ
कलुष-कारनी कामनाएँ !
.
नये पूर्ण मानव बनें हम,
सकल-हीनता-मुक्त, अनुपम
आओ जगाएँ
भुवन-भाविनी भावनाएँ !
.
नहीं हो परस्पर विषमता,
फले व्यक्ति-स्वातंत्र्य-प्रियता
आओ मिटाएँ
दलन-दानवी-दासताएँ !
.
कठिन प्रति चरण हो न जीवन,
सदा हों न नभ पर प्रभंजन
आओ बहाएँ
अधम आसुरी आपदाएँ !
.
 
(100) समता का गान
.
मानव-समता के रंगों में
आज नहा लो !
.
सबके तन पर, मन पर है जिन
चमकीले रंगों की आभा,
उन रंगों से आज मिला दो
अपनी मंद प्रकाशित द्वाभा,
युग-युग संचित गोपन कल्मष
आज बहा लो !
.
भूलो जग के भेद-भाव सब
वर्ण-जाति के, धन-पद-वय के,
गूँजे दिशि-दिशि में स्वर केवल
मानव महिमा गरिमा जय के,
मिथ्या मर्यादा का मद-गढ़
आज ढहा दो !
.
 
(101) होली
.
नाना नव रंगों को फिर ले आयी होली,
उन्मत्त उमंगों को फिर भर लायी होली !
.
आयी दिन में सोना बरसाती फिर होली,
छायी, निशि भर चाँदी सरसाती फिर होली !
.
रुनझुन-रुनझुन घुँघरू कब बाँध गयी होली,
अंगों में थिरकन भर, स्वर साध गयी होली !
.
उर मे बरबस आसव री ढाल गयी होली,
देखो, अब तो अपनी यह चाल नयी हो ली !
.
स्वागत में ढम-ढम ढोल बजाते हैं होली,
होकर मदहोश गुलाल उड़ाते हैं होली !
.
 
(102) विश्व-श्री
.
देश-देश की स्वतंत्रता अमर रहे !
.
प्राण से अधिक
अपार प्रिय हमें स्वतंत्रता,
देश-प्रेम के लिए
कहीं नियत न अर्हता,
लोक-तंत्र-भावना सदा प्रखर रहे !
.
विश्व के असंख्य जन
अभेद्य हैं, समान हैं,
भाव एक हैं, यदपि
अनेक राष्ट्र-गान हैं,
साम्य-कामना ज्वलंत प्रति प्रहर रहे !
.
त्याज्य: जो मनुष्य की
मनुष्यता दहन करे,
ग्राह्य: जो उदार
मानवीयता वहन करे,
सर्व-धर्म-प्रेम की प्रवह लहर रहे !
.
 
(103) जनतंत्र-आस्था
.
जनतंत्र के उद्घोष से गुंजित दिशाएँ !
.
आज जन-जन अंग शासन का,
बढ़ गया है मोल जीवन का,
स्वाधीनता के प्रति समर्पित भावनाएँ !
.
अब नहीं तम सर उठाएगा,
ज्याति से नभ जगमगाएगा,
उद्देश्य-प्रेरित दृढ़ हमारी धारणाएँ ।
.
मूक होगी रागिनी दुख की,
मूर्त होगी कामना सुख की,
अब दूर होंगी हर तरह की विषमताएँ !
.
 
(104) गणतंत्र-स्मारक
.
गणतंत्र-दिवस की स्वर्णिम
किरणों को मन में भर लो !
.
आलोकित हो अन्तरतम,
गूँजे कलरव-सम सरगम,
गणतंत्र-दिवस के उज्ज्वल
भावों को मधुमय स्वर दो !
.
आँखों में समता झलके,
स्नेह भरा सागर छलके,
गणतंत्र-दिवस की आस्था
कण-कण में मुखरित कर दो !
.
पशुता सारी ढह जाये,
जन-जन में गरिमा आये,
गणतंत्र-दिवस की करुणा-
गंगा में कल्मष हर लो !
.
 
(105) प्रण
.
मानवी गरिमा सदा रक्षित-प्रतिष्ठित हो
प्रण हमारा !
.
भाग्य-निर्माता स्वयं हों हम,
शक्ति जनता की नहीं हो कम,
व्यक्ति की स्वाधीनता अपहृत न किंचित हो
प्रण हमारा !
.
एकता के सूत्र में बँधकर,
अग्रसर हों सब प्रगति-पथ पर,
धर्म-भाषा-वर्ण पर कोई न लांछित हो
प्रण हमारा !
.
दूर हो अज्ञान-निर्धनता
वर्ग-अन्तर-मुक्त मानवता,
अर्थ-अर्जित कुछ जनों तक ही न सीमित हो
प्रण हमारा !
.
 
(106) वर्तमान
.
युग
अराजकता-अरक्षा का,
सतत विद्वेष-स्वर-अभिव्यक्ति का,
कटु यातनाओं से भरा,
अमंगल भावनाओं से डरा !
धूमिल
गरजते चक्रवातों ग्रस्त !
प्रतिक्षण
अभावों-संकटों से त्रस्त !
.
युग
निर्दय विघातों का,
असह विष दुष्ट बातों का !
अभोगी वेदना का,
लुप्त मानव-चेतना का !
.
घोर
अनदेखे अँधेरे का !
अजनबी
शोर,
रक्तिम क्रूर जन-घातक
सबेरे का !
.
 
(107) श्रमजित्
.
श्रम करेंगे तो —
हमारे स्वप्न सब साकार होंगे !
सुदृढ़ आधार होंगे !
.
उन्मुक्त हो,
सम्पन्नता सुख शान्ति के
नव लोक में
जीवन जिएंगे हम,
सभ्यता-संस्कृति वरण कर
ज्ञानमय आलोक में
प्रतिक्षण रहेंगे हम !
हमारी कल्पनाएँ मूर्त होंगी
श्रम करेंगे तो —
सतत ज्वाला उगलते
अग्नि-भूधर क्षार होंगे !
हमारे स्वप्न सब साकार होंगे !
श्रम करेंगे तो —
अभावों की गहनतम रिक्तता
भर जायगी,
हर हीनता को रौंद
श्रम-जल-धार
जीवन पुण्यमय कर जायगी !
श्रम करेंगे हम—
उपस्थित आज आगत के लिए,
भावी अनागत के लिए !
.
हम
वर्तमान-भविष्य के
अविजित
नियन्ता हो, नियामक हों !
विचक्षण
अभिलषित-जीवन-विधायक हों !
.
 
(108) संकल्प
.
शक्तिमत्व हो,
दीपाराधन हो !
मरणान्तक रावण की शर्तें
निविड़-तमिस्रा की पर्तें
टूटेंगी,
टूटेंगी !
.
कृत-संकल्पों के राम जगे
जन-जन के अन्तर में !
आग्नेय-अस्त्र
पुष्पक-मिग
संचालक उत्पन्न हुए
घर-घर में !
.
सीमाओं के प्रहरी
बने अजेय हिमालय,
मानवता की निश्चय जय !
.
दीपोत्सव हो,
दीपोत्सव हो !
ज्योति-प्रणव हो !
.
हर बार
तमस्र युगों पर
प्रोज्ज्वल विद्युत आभा
फूटेगी,
फूटेगी !
.
शक्तिमत्व हो,
दीपाराधन हो !
गर्विता अमा का
कण-कण बिखरेगा,
दीपान्विता धरा का
आनन निखरेगा !
.
 
(109) आश्वस्त
.
चैराहा हो
या सतराहा
किंकर्त्तव्यविमूढ़ नहीं,
दिग्भ्रम होने का
भय मन पर आरूढ़ नहीं।
.
माना
पथ से इतनी पहचान नहीं है,
मंज़िल तक हो आने का
परिज्ञान नहीं है,
पर,
लक्ष्य-दृष्टि है साफ़ अगर
तो पढ़ लेगी
पथ पर अंकित —
क्रोशों की संख्या,
उत्तर-दक्षिण
पूरब-पश्चिम
स्थित
नगरों के नाम सभी।
फिर —
चैराहों-सतराहों से
आगे बढ़ना
नहीं कठिन,
फिर —
चैराहों-सतराहों पर
होना नहीं मलिन।
.
नाना मत,
नाना शासन-पद्धतियाँ,
अगणित राहें,
अगणित नारे-झण्डे,
अनगिनती
आपस में तीव्र विरोधी आवाज़ें,
पर,
यदि युग को पढ़ सकने की
क्षमता है,
यदि जन-मन की धड़कन से
निज अन्तर की समता है,
तो असमंजस का प्रश्न न होगा,
निष्ठा निर्मूल न होगी,
चैराहों-सतराहों के मोड़ों से
पथ भूल न होगी !
.
 
(110) विचित्र
.
पृथ्वी का क्षेत्रफल
चाहे कितना भी हो,
हमें रहने को मिली है
यह कब्र जैसी
कोठरी !
जिसमें —
ज़िन्दा होने का
भ्रम होता है,
जिसमें —
ख़ुद को मुर्दा समझकर ही
बमुश्किल
जीया जा सकता है !
बरसाती रातों में
यह सोचना
कितना अद्भुत लगता है —
मुर्दों की कब्रें
अच्छी हैं इससे
उनकी छतें तो नहीं टपकतीं ;
शव
धरती माँ की गोद में
आराम से तो सोते हैं !
हम तो गीले बिस्तर पर
रात भर जगते हैं,
तत्त्ववेत्ताओं जैसे
चुपचुप रोते हैं !
.
 
(111) परिणति
.
आजन्म
अपमानित-तिरस्कृत
ज़िन्दगी
पथ से बहकती यदि —
सहज;
आश्चर्य क्या है ?
.
आजन्म
आशा-हत
सतत संशय-भँवर उलझी
पराजित ज़िन्दगी
अविरत लहकती यदि, —
हज;
आश्चर्य क्या है ?
.
आजन्म
वंचित रह
अभावों-ही-अभावों में
घिसटती ज़िन्दगी
औचट दहकती यदि —
सहज;
आश्चर्य क्या है ?
.
 
(112) प्रतिबद्ध
.
हम
मूक कण्ठों में
भरेंगे स्वर
चुनौती के,
विजय-विश्वास के,
सुखमय भविष्य
प्रकाश के,
नव आश के !
.
हर व्यक्ति का जीवन
समुन्नत कर
धरा को
मुक्त शोषण से करेंगे,
वर्ग के
या वर्ण के
अन्तर मिटा कर
विश्व-जन-समुदाय को
हम
मुक्त दोहन से करेंगे !
.
न्याय-आधारित
व्यवस्था के लिए
प्रतिबद्ध हैं हम,
त्रास्त दुनिया को
बदलने के लिए
सन्नद्ध हैं हम !
.
 
(113) योगदान
.
नयी फ़सल के लिए
प्राण श्रम-वारि-कण कुछ
समर्पिंत,
धरा की रगों को
विमल रक्त-कण कुछ
समर्पित !
.
सजल हो
सबल हो !
अभीप्सित जगत हेतु
बोया हुआ हर नवल बीज
रे पल्लवित हो,
सुफल हो !
मधुर रस सदृश
हर हृदय में
भरे भावना...कामना
.
इसलिए
सृष्टि की साधना में
निवेदित
नयी चेतना के प्रवर स्वर !
निःसृत
लोक-हित-निष्ठ
आराधना के सुकर स्वर
समर्पित !
.
 
(114) नवोन्मेष
.
खण्डित पराजित
ज़िन्दगी ओ !
सिर उठाओ।
आ गया हूँ मैं
तुम्हारी जय सदृश
सार्थक सहज विश्वास का
हिमवान !
.
अनास्था से भरी
नैराश्य-तम खोयी
थकी हत-भाग सूनी
ज़िन्दगी ओ !
सिर उठाओ।
और देखो
द्वार दस्तक दे रहा हूँ मैं
तुम्हारे भाग्य-बल का
जगमगाता सूर्य तेजोवान !
.
ज़िन्दगी
इस तरह
टूटेगी नहीं !
.
ज़िन्दगी
इस तरह
बिखरेगी नहीं !
.
 
(115) दीप जलाओ
.
आँगन-आँगन दीप जलाओ,
दीपों का त्योहार मनाओ !
.
स्वर्णिम आभा घर-घर बिखरे
मनहर आनन, कन-कन निखरे
ज्योतिर्मय सागर लहराये
काली-काली रात सजाओ !
.
निशि अलकों में भर-भर रोली
नाचें जगमग किरनें भोली
आलोक घटा घिर-घिर आये
सारी सुधबुध भूल नहाओ !
.
हर उर अभिनव नेह भरा हो
युग-युग रोयी धन्य धरा हो,
चलो सुहागिन, थाल उठाओ
नभ-गंगा में दीप बहाओ !
.
 
(116) दीप-माला
.
आज घर-घर छा रहा उल्लास !
.
भर हृदय में प्रीत
मधु मदिर संगीत
आज घर-घर दीपकलिका वास !
.
नव सुनहरा गात
जगमगाती रात
आज घर-घर जा लुटाती हास !
.
कर रमन शृंगार
भर उमंग विहार
आज घर-घर दीप-माला रास !
.
 
(117) अभिषेक
.
माना, अमावस की अँधेरी रात है,
पर, भीत होने की अरे क्या बात है ?
एक पल में लो अभी —
जगमग नये आलोक के दीपक जलाता हूँ !
.
माना अशोभन, प्रिय धरा का वेष है
मन में पराजय की व्यथा ही शेष है,
पर, निमिष में लो अभी —
अभिनव कला से फिर नयी दुलहिन सजाता हूँ !
.
कह दो अँधेरे से प्रभा का राज है,
हर दीप के सिर पर सुशोभित ताज है,
कुछ क्षणों में लो अभी —
अभिषेक आयोजन दिशाओं में रचाता हूँ !
.
 
(118) दीप धरो
.
सखि ! दीप धरो !
.
काली-काली अब रात न हो,
घनघोर तिमिर बरसात न हो,
बुझते दीपों में हौले-हौले,
सखि ! स्नेह भरो !
.
दमके प्रिय-आनन हास लिए,
आगत नवयुग की आस लिए,
अरुणिम अधरों से हौले-हौले,
सखि ! बात करो !
.
बीते बिरहा के सजल बरस
गूँजे मंगल नव गीत सरस
घर आये प्रियतम, हौले-हौले
सखि ! हीय हरो !
.
 
(119) अंधकार
.
शीत युद्ध से समस्त विश्व त्रस्त
हो रहा मनुष्य भय विमोह ग्रस्त !
.
डगमगा रही निरीह नीति-नाव
जल अथाह, नष्ट पाल-बंधु-भाव !
.
राष्ट्र द्वेष की भरे अशेष दाह
मित्रता प्रसार की निबद्ध राह !
.
मच रही अजीब अंध शस्त्र-होड़
पशु बना मनुज विचार-शक्ति छोड़ !
.
जन-विनाश चक्र चल रहा दुरंत
आज साधु-सभ्यता विहान अंत !
.
गूँजते चतुर्दिशा कठोर बोल
रम्य-शांति-राग का रहा न मोल !
.
एकता-सितार तार छिन्न-भिन्न !
हर दिशा उदास मूक खिन्न-खिन्न !
.
अस्त सूर्य, प्राण वेदना अपार
अंधकार, अंधकार, अधंकार !
.
 
(120) लक्ष्य
.
यदि सूखे युग-अधरों को मुसकान नहीं दे पाये,
अश्रु-विमोचित आँखों में यदि सपने नहीं सजाये,
असमय उजड़ी बगिया को यदि फिर से लहलहा न दी,
सूनी-सूनी डालों को यदि फिर से चहचहा न दी,
तो व्यर्थ तुम्हारा जीवन !
.
शोषण-अग्नि-दग्ध तन के यदि नहीं मिटाये छाले,
यदि हारे थके उरों में स्पंदित प्राण नहीं डाले,
यदि नहीं घुटन के क्षण में बरसा घर-घर में सौरभ,
और नहीं महका सारा अणु-उद्जन-धूम ग्रसित नभ,
तो व्यर्थ तुम्हारा गायन !
.
बढ़ता वेग नहीं रोका, यदि प्रतिद्वन्द्वी लहरों का,
हिंसक क्रुद्ध आक्रमक फन यदि कुचला न विषधरों का,
जनयुग-संस्कृति सीता की यदि लज्जा न बचा पाये,
पूँजीशाही रावण को यदि फिर से न मिटा पाये,
तो व्यर्थ तुम्हारा यौवन !
.
 
(121) आलोक
.
मनुष्य का भविष्य —
अंधकार से,
शीत-युद्ध-भय प्रसार से
मुक्त हो, मुक्त हो !
रश्मियाँ विमल विवेक की
विकीर्ण हों,
शक्तियाँ विकास की विरोधिनी
विदीर्ण हों !
वर्ग-वर्ण भेद से,
आदमी-ही !आदमी की क़ैद से
मुक्त हो, मुक्त हो !
.
चक्रवात, धूल, वज्रपात से
नवीन मानसी क्षितिज
घिरे नहीं
घिरे नहीं !
नये समाज का शिखर
गिरे नहीं, गिरे नहीं !
.
पुनीत दिव्य साधना,
विश्व-शांति कामना,
उषा समान भूमि को सिँगार दे,
त्रस्त जग उबार दे
प्यार से दुलार दे
.
नवीन भावना-पराग
आग में झुलस —
जले नहीं
जले नहीं !
अनेक अस्त्र-शस्त्र बल प्रहार से,
विषाक्त दानवी घृणा प्रचार से,
वर्तमान सभ्यता
मुक्त हो, मुक्त हो !
.
 
(122) शुभकामनाएँ
.
जो लड़ रहे
साम्राज्यवादी शक्तियों से देश,
जिनकी वीर जनता ने
किया धारण शहीदी वेश
भेजता हूँ मैं उन्हें शुभकामनाएँ —
हो विजय !
भेजता विश्वास हूँ —
हे अभय !
अन्तिम विजय तुमको मिलेगी,
आततायी-दुर्ग की दृढ़ नींव
निश्चय ही हिलेगी,
स्वार्थमय
साम्राज्य-लिप्सा से सनी
सत्ता ढहेगी !
मुक्त जनता
उठ
बुलन्दी से
निडर बन
मातृ-भू की जय कहेगी !
.
जानते हैं हम
जानते हो तुम
जगत की वस्तु सर्वोत्तम
व्यक्ति की स्वाधीनता है
व्यक्ति के हित में !
धरा पर
एक मानव भी
न वंचित हो
प्रथम अधिकार से
स्वाधीन जीवन से।
.
अतः
संघर्ष जो तुम कर रहे हो,
देश का बूढ़ी शिराओं में
युवा बल भर रहे हो
शक्ति उससे पा रहा मैं भी !
राष्ट्र की स्वाधीनता का गीत
मिल कर गा रहा मैं भी !
.
 
(123) दीप जलता है
.
दीप जलता है !
सरल शुभ मानवी संवेदना का स्नेह भरकर
हर हृदय में दीप जलता है !
युग-चेतना का ज्वार
जीवन-सिंधु में उन्मद मचलता है !
दीप जलता है !
तिमिर-साम्राज्य के
आतंक से निर्भय
अटल अवहेलना-सा दीप जलता है !
.
जगमगाता लोक नव आलोक से,
मुक्त धरती को करेंगे
अब दमन भय शोक से !
.
लुप्त होगा सृष्टि बिखरा तम
हृदय की हीनता का ;
क्योंकि घर-घर
व्यक्ति की स्वाधीनता का
दीप जलता है !
.
बदलने को धरा
नव-चक्र चलता है !
नहीं अब भावना को
गत युगों का धर्म छलता है !
सकल जड़ रूढ़ियों की
शृंखलाएँ तोड़
नव, सार्थक सबल
विश्वास का
ध्रुव-दीप जलता है !
.
 
(124) नया भारत
.
संघर्षों की ज्वाला में
हँस-हँस,
नव-निर्माणों के गीत
उमंगों के तारों पर
जन-जन गाता है,
भारत अपने सपनों को
सत्य बनाता है !
.
मज़बूत इरादों को लेकर
श्रम-रत हैं नर-नारी,
उगलेगा फ़ौलाद भिलाई
झूमेगी क्यारी-क्यारी !
.
बदला कण-कण भारत का,
बदला जीवन भारत का !
.
भागे मूक उदासी के साये
उल्लासों के सूरज चमके हैं,
युग-युग के त्रास्त सताये
मुरझाये मुखड़े दमके हैं !
.
दुर्भाग्य दफ़न अब होता है,
उन्मुक्त गगन अब होता है !
कलियाँ खिलने को तरसायीं जो,
गदराई अमराई में
भोली-भोली कोयल
मन के गीत न गा पायी जो,
अब तो
आँगन-आँगन कैसा मौसम आया !
कलियाँ नाचीं,
कोयल ने मन-भावन गायन गाया !
.
जीवन में अभिनव लहरें हैं,
चंदन से बुदबुद छहरे हैं !
.
क्रोधित चम्बल
खिल-खिल हँसती है,
बाँधों की बाहों में
अलबेली-सी
अपने को कसती है !
लो हिन्द महासागर से
बादल घिर आया,
धानी साड़ी पहन
धरा ने आँचल लहराया !
जीवन के बीज नये
अब बोता भारत है !
मानवता के हित में
रत होता भारत है !
.
 
(125) एशिया
.
संगठित संघर्षरत सम्पूर्ण अभिनव एशिया
जागरित आलोकमय प्रत्येक मानव एशिया,
मुक्त अब साम्राज्यवादी चंगुलों से हो रहा
सभ्यता-साहित्य-संस्कृति-अर्थ-वैभव एशिया !
.
चीन-भारत मित्राता का जल रहा उर-उर दिया
स्नेह-पूरित ज्योति से जिसने उजागर युग किया,
वादियों दुर्गम पहाड़ों जंगलों औ’ मरुथलों
में बसे हर ग्राम-जनपद को बना सुर-पुर दिया !
.
दृढ़ सुरक्षा-भावना ले पंच शर्तों की शिला
सर उठाये व्योम में अविचल खड़ी सबको मिला,
शांति से सहयोग से अविराम निज-गन्तव्य तक
सत्य, पहुँचेगा नये युग-साधकों का काफ़िला !
.
अब न होगा चूर सपना आदमी की प्रीत का,
और बढ़ता जायगा विश्वास उसकी जीत का,
आँसुओं का शाह भी अब छीन पाएगा नहीं
माँ-बहन के कंठ से स्वर-राग सावन-गीत का !
.
 
(126) माओ और चाऊ के नाम
.
तुम्हारी मुक्ति पर
हमने मनाया था महोत्सव —
क्या इसलिए ?
तुम्हारे मत्त विजयोल्लास पर
बेरोक उमड़ा था
यहाँ भी हर्ष का सागर —
क्या इसलिए ?
नये इन्सान के प्रतिरूप में हमने
तुम्हारा
बंधु-सम स्वागत किया था —
क्या इसलिए ?
.
कि तुम —
अचानक क्रूर बर्बर आक्रमण कर
हेय आदिम हिंस्र पशुता का प्रदर्शन कर,
हमारी भूमि पर
निर्लज्ज इरादों से
गलित साम्राज्यवादी भावना से
इस तरह अधिकार कर लोगे ?
युग-युग पुरानी मित्रता को भूल
कटु विश्वासघाती बन
मनुजता का हृदय से अंत कर दोगे ?
.
तुम
आँसुओं के शाह बन कर
मृत्यु के उपहार लाओगे ?
पूरब से उदित होकर
अँधेरे का, धुएँ का
भर सघन विस्तार लाओगे ?
साम्यवादी वेष धर
सम्पूर्ण दक्षिण एशिया पर स्वत्व चाहोगे ?
.
इतिहास को —
तुमसे कभी ऐसी अपेक्षा थी नहीं
ऐसा करुण साहाय्य
तुम दोगे उसे !
नव साम्यवादी लोक को —
तुमसे कभी ऐसी अपेक्षा थी नहीं
ऐसा दुखद अध्याय
तुम दोगे उसे !
.
बदलो,
अभी भी है समय ;
अपनी नीतियाँ बदलो !
.
अभी भी है समय
पारस्परिक व्यवहार की
अपनी घिनौनी रीतियाँ बदलो !
.
अन्यथा;
संसार की जन-शक्ति
मिथ्या दर्प सारा तोड़ देगी !
आत्मघाती युद्ध के प्रेमी,
हठी !
बस लौट जाओ,
अन्यथा
मनु-सभ्यता
हिंसक तुम्हारा वार
तुम पर मोड़ देगी !
.
 
(127) रंग बदलेगा गगन
.
अब नहीं छाया रहेगा
शीश पर काला कफ़न !
कुछ पलों में रंग बदलेगा गगन !
.
दे रहा संकेत मलयानिल
थिरक !
हर डाल पर
हर पात पर
नव-जागरण आभास
मोड़ लेता विश्व का इतिहास।
गत
भयावह तम भरा पथ
पीर बोझिल शोक युग,
शुभ आगमन आलोक युग !
.
स्वप्निल धरा गतिमान,
निसृत लोक में नव गान
गुंजित हर दिशा
बीती निशा, बीती निशा !
.
चिर-प्रतीक्षित
स्वर्ण सज्जित प्रात
आया द्वार
लेकर हर हृदय को
हर्ष का, उत्साह का उपहार !
.
मानव लोक से अब दूर होगा
वेदना का तम गहन,
भारी उदासी से दबा वातावरण !
नव रंग बदलेगा गगन !
.
 
डा. महेंद्रभटनागर, 110 बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर — 474 002 [म.प्र.]
फ़ोन : 0751- 4092908 / मो. 98 93 40 97 93
[ क्रमश:]




























































































































































!

[महेंद्रभटनागर]

स्ववृत्त


द्वि-भाषिक कवि — हिन्दी और अंग्रेज़ी।

सन् 1941 के लगभग अंत से काव्य-रचना आरम्भ। तब कवि (पन्द्रह वर्षीय) 'विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर' में इंटरमीडिएट (प्रथम वर्ष) का छात्र था। सम्भवतः प्रथम कविता 'सुख-दुख' है; जो वार्षिक पत्रिका 'विक्टोरिया कॉलेज मेगज़ीन' के किसी अंक में छपी थी। वस्तुतः प्रथम प्रकाशित कविता 'हुंकार' है; जो 'विशाल भारत' (कलकत्ता) के मार्च 1944 के अंक में प्रकाशित हुई।

लगभग छह वर्ष की काव्य-रचना का परिप्रेक्ष्य स्वतंत्रता-पूर्व भारत; शेष स्वातंत्र्योत्तर।

हिन्दी की तत्कालीन तीनों काव्य-धाराओं से सम्पृक्त — राष्ट्रीय काव्य-धारा, उत्तर छायावादी गीति-काव्य, प्रगतिवादी कविता।

समाजार्थिक-राष्ट्रीय-राजनीतिक चेतना-सम्पन्न रचनाकार।
सन्1946 से प्रगतिवादी काव्यान्दोलन से सक्रिय रूप से सम्बद्ध। 'हंस' (बनारस / इलाहाबाद) में कविताओं का प्रकाशन। तदुपरान्त अन्य जनवादी-वाम पत्रिकाओं में भी। प्रगतिशील हिन्दी कविता के द्वितीय उत्थान के चर्चित हस्ताक्षर।

सन्1949 से काव्य-कृतियों का क्रमशः प्रकाशन।

प्रगतिशील मानवतावादी कवि के रूप में प्रतिष्ठित। समाजार्थिक यथार्थ के अतिरिक्त अन्य प्रमुख काव्य-विषय — प्रेम, प्रकृति, जीवन-दर्शन। दर्द की गहन अनुभूतियों के समान्तर जीवन और जगत के प्रति आस्थावान कवि। अदम्य जिजीविषा एवं आशा-विश्वास के अद्भुत-अकम्प स्वरों के सर्जक।

काव्य-शिल्प के प्रति विशेष रूप से जागरूक।
छंदबद्ध और मुक्त-छंद दोनों में काव्य-सॄष्टि। छंद-मुक्त गद्यात्मक कविता अत्यल्प। मुक्त-छंद की रचनाएँ भी मात्रिक छंदों से अनुशासित।
काव्य-भाषा में तत्सम शब्दों के अतिरिक्त तद्भव व देशज शब्दों एवं अरबी-फ़ारसी (उर्दू), अंग्रेज़ी आदि के प्रचलित शब्दों का प्रचुर प्रयोग।
सर्वत्र प्रांजल अभिव्यक्ति। लक्षणा-व्यंजना भी दुरूह नहीं। सहज काव्य के पुरस्कर्ता। सीमित प्रसंग-गर्भत्व।
विचारों-भावों को प्रधानता। कविता की अन्तर्वस्तु के प्रति सजग।

26 जून 1926 को प्रातः 6 बजे झाँसी (उ. प्र.) में, ननसार में, जन्म।
प्रारम्भिक शिक्षा झाँसी, मुरार (ग्वालियर), सबलगढ़ (मुरैना) में। शासकीय विद्यालय, मुरार (ग्वालियर) से मैट्रिक (सन्1941), विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर (सत्र 41-42) और माधव महाविद्यालय, उज्जैन (सत्र : 42-43) से इंटरमीडिएट (सन्1943), विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर से बी. ए. (सन्1945), नागपुर विश्वविद्यालय से सन्1948 में एम. ए. (हिन्दी) और सन्1957 में 'समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद' विषय पर पी-एच. डी.
जुलाई 1945 से अध्यापन-कार्य — उज्जैन, देवास, धार, दतिया, इंदौर, ग्वालियर, महू, मंदसौर में।
'कमलाराजा कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय, ग्वालियर (जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर) से 1 जुलाई 1984 को प्रोफ़ेसर-अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त।
कार्यक्षेत्र : चम्बल-अंचल, मालवा, बुंदेलखंड।

सम्प्रति शोध-निर्देशक — हिन्दी भाषा एवं साहित्य।

अधिकांश साहित्य 'महेंद्रभटनागर-समग्र' के छह-खंडों में एवं काव्य-सृष्टि 'महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा' के तीन खंडों में प्रकाशित।

सम्पर्क :
डा. महेंद्रभटनागर
सर्जना-भवन, 110 बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर — 474 002 [म. प्र.]
फ़ोन : 0751-4092908 / मो. 80 85 15 74 80
E-Mail : drmahendra02@gmail.com

'महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा'
खंड : 1

1 तारों के गीत
2 विहान
3 अन्तराल
4 अभियान
5 बदलता युग
6 टूटती शृंखलाएँ

खंड : 2

7 नयी चेतना
8 मधुरिमा
9 जिजीविषा
10 संतरण
11 संवर्त

खंड : 3

12 संकल्प
13 जूझते हुए
14 जीने के लिए
15 आहत युग
16 अनुभूत-क्षण
17 मृत्यु-बोध : जीवन-बोध
18 राग-संवेदन

प्रतिनिधि संकलन

19 गीति-संगीति [प्रतिनिधि गेय गीत]
20 कालपृष्ठ पर अंकित [सामाजिक यथार्थ से सम्बद्ध]
21 जीवन-राग [जीवन- दर्शन से सम्बद्ध]
22 चाँद, मेरे प्यार! (प्रेम-कविताएँ)
23 इंद्रधनुष (प्रकृति-चित्रण)
24 महेंद्रभटनागर की कविता-यात्रा [प्रतिनिधि कविताएँ]

अद्यतन काव्य-कृतियाँ

25 अनुभूतियाँ : एक हताश व्यक्ति की
26 विराम

मूल्यांकन / शोध

[1] महेंद्रभटनागर की काव्य-संवेदना : अन्तःअनुशासनीय आकलन
डा. वीरेंद्र सिंह (जयपुर)

[2] कवि महेंद्रभटनागर का रचना-कर्म
डा. किरणशंकर प्रसाद (दरभंगा)

[3] डा. महेंद्रभटनागर की काव्य-साधना
ममता मिश्रा (स्व.)

[4] महेंद्रभटनागर की कविता : परख और पहचान
सं. डा. पाण्डेय शशिभूषण 'शीतांशु' (अमृतसर)

[5] डा. महेंद्रभटनागर की काव्य-सृष्टि
सं. डा. रामसजन पाण्डेय (रोहतक)

[6] डा. महेंद्रभटनागर का कवि व्यक्तित्व
सं. डा. रवि रंजन (हैदराबाद)

[7] सामाजिक चेतना के शिल्पी : कवि महेंद्रभटनागर
सं. डा. हरिचरण शर्मा (जयपुर)

[8] कवि महेंद्रभटनागर का रचना-संसार
सं. डा. विनयमोहन शर्मा (स्व.)

[9] कवि महेंद्रभटनागर : सृजन और मूल्यांकन
डा. दुर्गाप्रसाद झाला (शाजापुर)

[10] महेंद्रभटनागर की सर्जनशीलता (शोध / नागपुर वि.)
डा. विनीता मानेकर (तिरोड़ा-भंडारा / महाराष्ट्र)

[11] प्रगतिवादी कवि महेंद्रभटनागर : अनुभूति और अभिव्यक्ति /
(शोध / जीवाजी वि., ग्वालियर)
डा. माधुरी शुक्ला (स्व.)

[12] महेंद्रभटनागर के काव्य का वैचारिक एवं संवेदनात्मक धरातल
(शोध / सम्बलपुर वि., उड़ीसा)
डा. रजत कुमार षड़ंगी (कोरापुट-उडी़सा)

[13] डा. महेंद्रभटनागर : व्यक्तित्व और कृतित्व (शोध / कर्नाटक वि.)
डा. मंगलोर अब्दुलरज़ाक बाबुसाब (गदग-कर्नाटक)

[14] डा. महेंद्रभटनागर के काव्य का नव-स्वछंदतावादी मूल्यांकन
(शोध / दयालबाग डीम्ड वि., आगरा)
डा. कविता शर्मा (आगरा)

[15] डा. महेंद्रभटनागर के काव्य में सांस्कृतिक चेतना
(शोध / कानपुर वि.)
डा. अलका रानी (कन्नौज)

[16] महेंद्रभटनागर के काव्य में युग-बोध
(शोध / ललितनारायण वि., दरभंगा)
डा. मीना गामी (दरभंगा)


CRITICAL STUDY OF MAHENDRA BHATNAGAR'S POETRY

[1]The Poetry of Mahendra Bhatnagar :
Realistic & Visionary Aspects
Ed. Dr. O.P. Budholia

[2]Living Through Challenges :
A Study of Dr.Mahendra Bhatnagar's Poetry
By Dr. B.C. Dwivedy.

[3] Poet Dr. Mahendra Bhatnagar :
His Mind And Art / (In Eng. & French)
Ed. Dr. S.C. Dwivedi & Dr. Shubha Dwivedi


Works :
Forty Poems of Mahendra Bhatnagar
After The Forty Poems
Exuberance and other poems
Dr. Mahendra Bhatnagar's Poetry
Death-Perception : Life-Perception
Poems : For A Better World
Passion and Compassion
Lyric-Lute
A Handful of Light
New Enlightened World
Dawn to Dusk

Distinguished Anthologies :
[1] ENGRAVED ON THE CANVAS OF TIME
[Poems of social harmony & humanism : realistic & visionary aspects.]
[2] LIFE : AS IT IS
[Poems of faith & optimism : delight & pain. Philosophy of life.]
[3] O, MOON, MY SWEET-HEARET!
[Love poems]
[4] RAINBOW
[Nature poems]
[5] DEATH AND LIFE
[Poems on Death-perception : Life-perception & Critical Study]


Translations :
In French :
A Modern Indian Poet : Dr. Mahendra
Bhatnagar : UN POÈTE INDIEN ET
MODERNE / Tr. Mrs. Purnima Ray

In Tamil : Kaalan Maarum,
Mahendra Bhatnagarin Kavithaigal.
In Telugu : Deepanni Veliginchu.
In Kannad & In Bangla :
Mrityu-Bodh : Jeewan-Bodh.
In Marathi : Samkalp Aaani Anaya Kavita
In Oriya : Kala-Sadhna.
In Malyalam, Gujrati, Manipuri, Urdu, Sindhi.
In Czech, Japanese, Nepali,


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HINDI
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www.sahityashilpi.comENGLISH-FRENCHwww.poetrypoem.com/mpb1
ENGLISH(1) www.poetrypoem.com/mpb2 [Selected Poems 1,2,3](2) www.poetrypoem.com/mpb4 [‘Exuberance and other poems’ /
‘Poems : For A Better World /Passion and Compassion](3) www.poetrypoem.com/mpb3[‘Death-Perception : Life-Perception’ /
‘A Handful Of Light’] (4) www.poetrypoem.com/mpb[‘Lyric-Lute’]
(5)www.anindianenglishpoet.blogspot.com [‘…A Study Of Dr. Mahendra Bhatnagar’s Poetry’](6)www.mahendrabhatnagar.blogspot.com [ Critics & Mahendra Bhatnagar’s Poetry]

PATRON :
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